________________
.३५२
नियमसार-प्राभृतम् ईषदसमाप्तौ कल्पवेश्यवेशीयाः ॥५४६॥ यथा ईषदपरिसमाप्तः पटुः पटुकल्पः पटुदेश्यः, पटुदेशीयः इत्यादि, अत एव ईवपरिसमाप्तः जिनकल्पः सोऽस्यास्ति इति जिनकल्पी।
पुनः स्थविरकल्पिमुनीनां लक्षणं द्रष्टव्यमस्ति, एतेषामेव दर्शनमस्मिन् पंचमकाले लभ्यते । तथाहि
सांप्रतं कलिकालेऽस्मिन् होनसंहननत्वतः । स्थानीयनगरनामजिनसमनिवासिनः ॥११९॥ कालोऽयं दुःसहो हीनं शरीरं तरलं मनः ।
मिथ्यामतमतिव्याप्तं तथापि संयमोखताः ॥१२०॥ तात्पर्वमेतत् ३ह भयोचतुर्थकले विदेहक्षेत्रस्थशाश्वतकर्मभूमिष वा जिनकल्पिमुनीनामेव वीतरागभावेन परमसमाधिध्यानं जायते, न चात्रबुष्षमकाले
कल्प प्रत्यय कहाँ होता है ? सो बताते हैं
किंचित् अपरिपूर्णता में कल्प, देश्य और देशीय ये तीन प्रत्यय होते हैं । जैस-जो पटु होने में किंचित् कम है, बह पटुकल्प, पटुदेश्य और पटुदेशीय कहलाता है। यह व्याकरण शास्त्र का नियम है । अतः 'जिन' होने में कुछ ही कम हैं, वे जिनकल्पी मुनि होते हैं।
पुनः स्थविरकल्पी मुनियों का लक्षण देखने योग्य है। इन मुनियों का ही दर्शन इस पंचमकाल में हो सकता है । सो ही कहा है
इस कलिकाल में वर्तमान में हीन संहनन होने से स्थानीय नगर, ग्राम के जिनमंदिर में निवास करने वाले मुनि होते हैं। यह काल दुःसह है, शरीर होन है, मन चंचल है और चारों तरफ का वातावरण मिथ्यात्व से व्याप्त है। ऐसे समय में भी जो मुनि संयम पालन करने में लगे हुये हैं। वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं। ये मुनि आजकल संघ में ही रहते हैं ।
तात्पर्य यह है कि इस भरतक्षेत्र में चतुर्थकाल में अथवा विदेह क्षेत्र में स्थित शाश्वत कर्मभूमियों में जिनकल्पी मुनियों के ही वीतराग भाव से परमसमा
१. कातन्त्ररूपमाला, तद्धित । २. भद्रबाहुचरित, परिच्छेद ४।