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नियमसार-प्रामृतम् भेदरत्नत्रयस्वरूपमेव निश्चयप्रायश्चित्तम् इति सूचयित्या, "कायाई परदव्वे" इत्यादिगाथासूत्रण निश्चयकारिसलक्षणं कथितमिति निभिः सूत्रैः तृतीयोऽन्तरा. षिकारो गतः।
अत्र नियमसारग्रन्थे पूर्वोक्तकथितप्रकारेण निश्चयप्रायश्चित्तसामान्यविशेषलक्षणोपायकथनमुख्यत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानि । तदनु भैवविज्ञानोत्तमतपश्चरणरूपशुद्ध प्रायश्चित्तसूचनप्रधानत्वेन त्रीणि सूत्राणि गतानि । तत्पश्चात् शुद्धात्मध्यानस्वरूपशुद्धरत्नत्रयलक्षणनियमस्वरूपशुद्ध प्रायश्चित्तकथनप्रधानत्वेन श्रीणि सूत्राणि गतानि । नवभिर्गाथासप्रैस्त्रयोऽन्तराधिकारा गताः ।
इति श्रीभगवरकुन्दकुन्दाचार्यप्रशीतनियमसारप्राभूतग्रन्थे ज्ञानमत्यायिकाकृत"स्यावादचन्द्रिका" नामटोकायां निश्चयमोक्षमार्गमहाधिकारमध्ये ।
शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तनामा अष्टमोऽधिकारः समाप्तः। नियमशब्द से वाच्य शुद्ध अभेद रत्नत्रय का स्वरूप हो निश्चयप्रायश्चित्त है, ऐसा सूचित करके "कायाई परदन्वे" इत्यादि गाथासूत्र के द्वारा निश्चयकायोत्सर्ग का लक्षण कहा है । इस प्रकार इन तीन सूत्रों द्वारा यह तीसरा अंतराधिकार पूर्ण हुआ ।
इस नियमसार ग्रन्थ में पूर्वोक्त कहे प्रकार से निश्चय प्रायश्चित्त के सामान्य विशेष लक्षण और उपाय के कथन की मुख्यता से तीन सूत्र हुये हैं । पुनः भेद विज्ञान और उत्तम तपश्चरणरूप शुद्ध प्रायश्चित्त के कथन को प्रधानता से तीन सूत्र हुये हैं। इसके बाद शुद्धात्मध्यान स्वरूप शुद्ध रत्नत्रय लक्षण जो नियम है, उस नियमरूप ही शुद्ध प्रायश्चित्त है इस कथन की मुख्यता से तीन सूत्र हुये हैं । इस तरह नव गाथा सूत्रों द्वारा तीन अंतराधिकार पूर्ण हुये हैं ।
इस प्रकार श्री भगवान् कुंदकुंदाचार्य प्रणीत नियमसारप्राभूत ग्रन्थ में ज्ञानमती आर्यिका कृत स्याद्वादचंद्रिका नाम को टोका में निश्चय मोक्षमार्ग महाधिकार के अन्तर्गत शुद्ध निश्चयप्रायश्चित्त नाम का यह
आठवाँ अधिकार पूर्ण हुआ ।