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नियमसार-प्रामृतम् बयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता-द्वादशांगश्रुतज्ञानान्तर्गतशास्त्रस्य पठनपाठनोपवेशादिवचनोच्चारणक्रियां परित्यज्य । वीयरायभावेण जो अप्पाणं झायदिसरागचारित्रानंतरसमुत्पन्नवीतरागचारित्रपरिणतशुद्धभावेन यः कश्चिद् महातपोधनः साधुः सहजज्ञानदर्शनपरिणतं टंकोस्कीर्णज्ञायकस्वभावं निजात्मानं ध्यायति चितपति । तस्स परमसमाहो हवे-तस्य महामुनेः निर्विकल्पशुखोपयोगपरिणतौ परमसमाधिनाम्ना स्वात्मध्यानं भवेत् ।।
इतो विस्तरः-यः कश्चित् सत्त्वधैर्यादिगुणोपेतः उत्तमसंहननयुक्तो जिनकल्पी महामुनिर्गुरूणामाज्ञया एकाको विहरन् सन् गिरगहाकंदराविष निवसति, स एव शिष्यपरिग्रहविरहितोऽध्यापनसम्बोधनादिप्रवृत्तिशून्यः सन् निर्विकल्पध्याने स्थातुं शक्नोति, न च स्रचारी एकविहारी सामान्यजनसम्पर्ककुशलो वाचाल: साधुः ।।
आत्मा का ध्यान करते हैं, (तस्स परमसमाही हवे) उन्हीं मुनि के परमसमाधि होती है ।।१२२।।
टोका--द्वादशांग श्रुतज्ञान के अंतर्गत शास्त्र के पढ़ने, पढ़ाने और उपदेश आदि देने रूप वचन बोलने की क्रिया को छोड़ कर के सरागचारित्र के अनंतर उत्पन्न हुये वीतरागचारित्र से परिणत शुद्ध भाव के द्वारा जो कोई महातपोधन साधु सहज ज्ञान दर्शन से परिणत टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभाववाली अपनी आत्मा को ध्याते हैं--चितवन करते हैं, उन महामुनि के निर्विकल्प शुद्धोपयोग की अवस्था में परम समाधि नाम से स्वात्म ध्यान होता है । - इसी का विस्तार कहते हैं--जो कोई सत्त्व, धैर्य आदि गुणों से सहित, उत्तम संहनन से युक्त, जिनकल्पी महामुनि गुरु की आज्ञा से एकाको विहार करते हए पर्वत, पर्वत को गुफा और कंदरा आदि में निवास करते हैं, वे ही शिष्यों के परिग्रह से रहित, पढ़ाने, संबोधित करने आदि प्रवृत्ति से शून्य होते हुये निर्विकल्प ध्यान में स्थित होने में समर्थ होते हैं, किंतु स्वैराचारी एकलविहारी सामान्य जनता से सम्पर्क रहने वाले बाचाल साधु ऐसा ध्यान नहीं कर सकते हैं। . .