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नियमसार-प्रामृतम् सुहअसुहवयणरयणं-पुण्यपापयोः कारणभूतानां शुभाशुभवचनानां या काचित् रचना अन्तर्बाह्य जल्परूपा, तां त्यक्त्वा । रायादीभाववारणं किच्चा-रागाविभावानां च वारणं निवारणं कृत्वा । जो अप्पाणं झायदि-यः कश्चिद वीतरागचारित्राविनाभाविशुद्धोपयोगी महामुनिः सहजशुद्धज्ञानदर्शनसुखवीर्यमयनिजात्मानं ध्यायति । तस्स दुणियमा नियम हवे-तस्प महासाधोः खलु नियमात् निश्चयात् नियमो निश्चयप्रायश्चित्तं निश्चयरत्नत्रयं वा भवेत् ।
इतो विस्तर:-ये परमसंयमिनो नियमपूर्वक नित्यं भेदाभेवरत्नत्रयलक्षणनियम धारयन्ति, त एव मोहमल्लं काममल्लं च जित्वा यममल्लमपि जेतुं समर्था भवन्ति । अतः अस्मिन्नाजवंजवे अतीव बुर्लभां सम्यक्त्वलब्धि बोधि च सम्प्राप्य एतादृग्ध्यानं ध्यातव्यं यस्मिन् ध्यातृध्येयध्यानपरिकल्पनाऽपि न स्यात्, किं पुनः अन्य विकल्पलालैः ?
उक्तं च श्रीपद्मनंदि-आचार्येण
टीका-पुण्य-पाप के लिये कारणभूत शुभ-अशुभ वचनों की जो कुछ अन्तर्बाह्य जल्परूप रचना है, उसको छोड़कर तथा रागादि भावों का भी निवारण कर जो कोई वीतरागचारित्र से अविनाभावी शुद्धोपयोगी महामुनि, सहज शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख', वीर्यमय अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उन महासाधु के निश्चय से नियम-निश्चय प्रायश्चित्त या निश्चय रत्नत्रय होता है ।
इसी का विस्तार करते हैं..--
जो परमसंयमी नियमपूर्वक नित्य ही भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय को धारण करते हैं, वे ही मुनि मोहमल्ल और काममल्ल को जीतकर यमराजमल्ल को भी जीतने में समर्थ हो जाते हैं । अतः इस अपार संसार में अतीव दुर्लभ सम्यक्त्वलब्धि को और बोधि को प्राप्त करके ऐसा ध्यान करना चाहिये कि जिसमें ध्याता, ध्येय और ध्यान की परिकल्पना भी न हो सके, फिर अन्य विकल्प समूह की तो बात ही क्या है ?
श्रीपद्मनंदि आचार्य ने कहा भी है