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नियमसारप्राभृतम् भर्भावाभावकथनपरेण चतुर्थ सूत्रं, चतुर्गत्यादिपरिवर्तनाभावप्रतिपादनत्वेन पञ्चमं सूत्र, दण्डादिविनिर्मुक्तत्वकथनेन षष्टं सूत्रं, बाह्याभ्यंतरग्रन्थ्यादिरहितत्यकथनेन सप्तम सूत्र, वर्णाधभावकथनमुख्यत्वेन चाष्टमं सूत्रम्, इति अष्टभिः सूत्रैः प्रतिषेधमुखेन तृतीयसम्यग्ज्ञानाधिकारे अन्तस्तत्त्वप्रतिपादकोऽयं प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः।
तदनु जीवस्य स्वरूपं किमिति विधिमुखेन प्रतिपादयन्ति । किञ्च, कर्मअन्याननाविषभावा जीवस्य स्वरूपा न इति ज्ञातं, पुनः कीदृशोऽयं जीव इति न ज्ञायते मयाऽतस्तदेव तावदुध्यतामिति पृच्छायामाहः श्रीकुंदकुंददेवा:---
अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसई।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिहिट्ठसंठाणं ॥४६॥ जीवं जाण-इमं प्रत्यक्षीभूतं जीव भो भव्य ! त्वं जानीहि । कथंभूतं ? औपशमिक आदि चारों भावों का भी अभाव है, ऐसा कहते हुये चौथा गाथासूत्र हुआ, पुनः जोब का चतुर्गति आदि में परिवर्तन भी नहीं है, इस प्रकार बतलाते हुये पाँचवाँ गाथासूत्र हुआ, पुनः यह जीव दण्ड आदि से रहित है, ऐसा कहते हुये छठा गाथासूत्र हुआ, जीव बाह्याभ्यंतर परिग्रह आदि से रहित है ऐसा कहते हुये सातवाँ गाथासूत्र हुआ, पुनः जीव में वर्णादि का अभाव है, इस कथन की मुख्यता से आठवौं गाथासूत्र हुआ । इस तरह आठ गाथासूत्रों द्वारा प्रतिषेध की मुख्यता से इस तृतीय सम्यग्ज्ञान अधिकार में अंतस्तत्त्व का प्रतिपादक यह पहला अन्तराधिकार समाप्त हुआ।
___ अब जीव का स्वरूप क्या है ? इस बात को विधिमुख' से बतलाते हैं । कर्म से हुये नानाविध भाव जीव के स्वरूप नहीं हैं, यह मैंने जाना । पुनः यह जीव कैसा है ? मुझे यह नहीं मालम हो रहा है, इसलिये अब इसे ही बतलाइये? ऐसा प्रश्न होने पर श्रीकुन्दकुन्ददेव कहते हैं---
अन्ययार्थ---(जीवं अरसं अरूबं अगंधं अब्बत्त) जीव को अरस, अरूप, अगंध, अध्यक्त (चेदणागुणं असद्द) चेतनागुण सहित, अशब्द, (अलिंगरगहणं) अलिंग ग्रहण और (अणिद्दिट्टसंठाण) अनिर्दिष्ट संस्थानवाला (जाण) जानो ॥४६।।।
टीका—हे भव्य जीव ! तुम इस प्रत्यक्षीभूत जीव को पाँच प्रकार के रस १. समयसार, गाया-४९ तथा प्रवचनसार गाथा-१७२ में भी यही गाथा मिलती है ।