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नियमसार - प्राभृतम्
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तात्पर्यमेतत् – स्यान्मनुष्यादिगतिभावपरिणतोऽहं व्यवहारनयापेक्षत्वात् । स्याद्गतिभावरहितशुद्ध चिन्मयस्वरूपोऽहं निश्श्चयनयविवक्षितत्वात् । ईबृग्भेव भावनाविकल्परूपेण चतुर्थगुणस्थानात् षष्ठगुणस्थानं यावत् जायते । पुननिविकल्पध्याने स्थित्वा मुनिरेभ्यः पृथगेव स्वमात्मानं ध्यायति, क्षीणकषायान्तम् । शुक्लध्यानबलेन केवलिनो भावरूपेण आभ्यो गतिभ्यः पृथग्भूत्वा गुणस्थानातीतावस्थायां द्रव्यरूपेणापि पृथग्भवंति । एतज्ज्ञात्वोभवनयातीतनिर्विकल्पसमाधिसिद्धयर्थं निरंतरं भावना कर्तव्या ॥७७॥
पुनर्मार्गणास्थानादिभावस्य कर्ता भवामि न वेति उत्तरयन्त्याचार्यदेवाः—
नाहं मग्गणठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण । कत्ता ण हि कारइदा, अणुमंता णेव कतीणं ॥ ७८ ॥
यह भेदभावना विकल्परूप से चौथे गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक होती है ।
तात्पर्य यह है कि 'कथंचित्' मैं मनुष्य आदि गतिभाव में परिणत हूँ, क्योंकि व्यवहारनय की अपेक्षा है । कथंचित् मैं गतिभाव से रहित शुद्ध चिन्मय - स्वरूप हूँ, क्योंकि इसमें निश्चयनय की विवक्षा है। पुनः निर्विकल्प ध्यान में स्थित होकर मुनिराज इनसे पृथक् ही अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, क्षीणकषाय गुणस्थान तक यह ध्यान होता है। उसके आगे केवली भगवान् भावरूप से इन चारों गतियों से पृथक होकर, गुणस्थानातीत - सिद्ध अवस्था में द्रव्यरूप से भी इनसे पृथक् हो जाते हैं । ऐसा जानकर दोनों नयों से परे निर्विकल्प समाधि की सिद्धि के लिए निरंतर भावना करते रहना चाहिये ।। ७७ ॥
पुनः प्रश्न होता है कि मैं मार्गणास्थान आदि भावों का कर्ता होता हूँ या नहीं ? सो आचार्यदेव उत्तर देते हैं
अन्ययार्थ - ( अहं मग्गणठाणो ण ) मैं मार्गणास्थान नहीं हूँ, ( अहं गुणठाण ण) मैं गुणस्थान नहीं हूँ, (जीवठाणो ण) मैं जीवस्थान नहीं हूँ। (ण हि कत्ता कारइदा ) न मैं इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला ही हूँ, (णेव कत्तीणं अणुमंता) और न मैं करते हुए को अनुमति देने वाला ही हूँ ।
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