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नियमसार - प्राभृतम्
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तारकादितरुणपर्यन्ता ये पर्यायास्तेषां कारणं रागादयस्तद्रूपोऽहं भवामि न वेति प्रश्ने प्रत्युत्तरं
प्रयच्छन्ति सूरिवर्याः
पाहं रागो दोसो ण चेव मोहो ण कारणं तेसिं । कत्ता हि कारइदा, अणुमंता व कतीर्ण ||८०| णाई कोही माणों, ण चैव माया ण होभि लोही हूँ । कत्ता हि कारइदा, अणुमंता पेत्र कत्तीणं ॥ ८१ ॥
णाहं रागो दोसो ण चेव मोहो- अहं शश्वत् शुद्धज्ञान दर्शन सुखवीर्यस्वभावस्वात् रागो द्वेषो या न भवामि न च मोहोऽपि । इमानि रागद्वेषमोह भाव कर्माणि पुद्गलद्रव्यकर्मोन उत्पद्यमानत्वात् पुद्गला एव । यद्यपि एषामुपादानं जीव एव, तथापि अचेतननिमित्तेन उत्पन्नानि कथंचित् अचेतनान्येव उच्यन्ते । अत एव ण कारणं तेसि - एतेषां कारणमपि अहं न भवामि । तहि कः कारणम् ? कर्मोदय एवं कारणम्,
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सब नारकी से लेकर तरुण पर्यंत जो पर्यायें हैं, उनके कारण जो रागादि भाव हैं, उन रूपों में मैं हूं या नहीं ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यवर्य उत्तर दे रहे हैंअन्वयार्थ - ( अहं रागो दोसो ण) में राग नहीं हूँ, मैं द्वेष नहीं हूँ । (ण चेव मोहो) मोह भी नहीं हूँ, (तेसि कारणं ण) इनका कारण भी नहीं हूँ । (ण हि कत्ता कारइदा ) न इनका करने वाला हूँ, न कराने वाला हूँ, ( जेव कत्तीणं अणुमंता ) और न करते हुए पुरुषों को अनुमति देने वाला हूँ । ( अहं कोहो माणो ण) मैं क्रोध नहीं हूँ, मान नही हूँ, (ण चेत्र माया ण अहं लोहो होमि) न माया हूँ और न लोभ ही हूँ । (ण हि कत्ता कारइदा ) न इनका कर्ता हूँ, न कराने वाला हूँ (जेव कत्तीर्ण अणुमंता ) और न करते हुए जनों को अनुमति देने वाला हूँ ।
टीका -- मैं शाश्वतकाल शुद्ध ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य स्वभाव वाला होने से राग अथवा द्वेषरूप नहीं होता हूँ और न मोहरूप होता हूँ । ये राग, द्वेष और मोह भावकर्म हैं, ये पुद्गल - द्रव्यकर्म के उदय से उत्पन्न होने से पुद्गल ही हैं । यद्यपि इनका उपादान कारण जीव ही है, फिर भी अचेतन पुद्गल के निमित्त से उत्पन्न हुए होने से ये कथंचित् अचेतन ही कहलाते हैं । अत एव मैं इनका कारण भी नहीं हूँ ।
प्रश्न - तो फिर इनका कारण कौन है ?