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नियमसार- प्रीभृतं
गते, तदनु "कोहं खमया " - इत्यादिना अपराधस्य मूलकारणं कषायास्तेषां जयोपायकथनपरत्वेन एकं सूत्रं गतम् इति त्रिभिः सूत्रैः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ।
अधुना सर्वोत्कृष्टं ज्ञानमेव निश्चयप्रायश्चित्तमिति निगदन्ति सूरयः --
उक्किट्ठो जो बोहो, णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं । जो धरइ मुणी णिच्चं, पायच्छित्तं हवे तस्स ॥ ११६॥
उक्कट्ठो जो बोहो, गाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं यः कश्चित् उत्कृष्टः सर्वोत्कृष्टो बोधः स एव ज्ञानं भेदविज्ञानं तदेव तस्य आत्मनः चित्तं अंतःकरणं भावमनः इति यावत् । "बोधो ज्ञानं चित्तमित्यनर्थान्तरम् ।" जो मुणी णिच्चं धरइ-यो मुनिः निर्ग्रन्यदिगम्बरः साधुः नित्यं सर्वकालं धरति, तमेव बोधं सततं स्वस्मिन् धारयति । तस्स पायच्छित्तं हवे - तस्य मुनेः प्रायश्चित्तं भवेत् ।
तद्यथा - "मनो द्विविधम्-द्रव्यमनो भावमनश्चेति । तत्र पुद्गलविपाकिफर्मोदयापेक्षं द्रव्यमनः । वीर्यान्तरायनो इन्द्रियावरणक्षयोपशमापेक्षा आत्मनो
कारण कषायें हैं, उनके जीतने का उपाय बतलाते हुए एक सूत्र हुआ । इस तरह तीन सूत्रों द्वारा यह प्रथम अंतराधिकार पूर्ण हुआ ।
सर्वोत्कृष्ट ज्ञान ही निश्चय प्रायश्चित्त है, अब आचार्यदेव ऐसा कहते हैं
अन्वयार्थ -- ( उक्किट्ठो जो बोहो णाणं ) उत्कृष्ट जो बोध है, वह ज्ञान है, ( तस्सेव अप्पणी चित्तं ) वही उस आत्मा का चित्त है । (जो मुणी णिच्चं धरइ) जो मुनि नित्य उसको धारण करते हैं, ( तस्स पायच्छितं वे) उनके प्रायश्चित्त होता है ।
टीका - जो कोई सर्वोत्कृष्ट बोध है, वही ज्ञान है-भेदविज्ञान है, वहीं उस आत्मा का चित्त, अर्थात् अंतःकरण भावमन है । क्योंकि बोध, ज्ञान और चित्त ये पर्यायवाची नाम हैं । जो निर्ग्रथ दिगंबर साधु उसी बोध को सदा अपने में धारण करते हैं, उन मुनि के ही प्रायश्चित्त होता है ।
उसे ही कहते हैं - मन दो प्रकार का है— द्रव्यमन और भावमन । उनमें से पुद्गलविपाकी कर्म के उदय की अपेक्षा रखनेवाला द्रव्यमन है । वीर्यांतराय और