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नियमसार-प्राभूत किंच, रागादिविकारस्वभावः कषायभाव एव महान् अपराधः, तेन भावेनैव स्वस्थ सहजविमलकेवलज्ञानवर्शनसौख्यवीर्यस्वभावस्यात्मनो भावस्य परेषा च जीवानां घातो जायते । प्रोक्तं चामृत चन्द्रसूरिणा
अप्रादुर्भावः स्खल रागादीनां भवत्यहिसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। तात्पर्यमेतत्-जितेन्द्रियो महासाधुः स्वात्मोत्थसहजशुद्धपरमानन्दमयं निर्विकारं निरामयं भावं संरक्षितुकामः स्वपरवैरोन कषायान् जयेत् सर्वप्रयत्नेन, तदेव तस्य परिणामविशुद्धया शुखप्रायश्चित्तं भवितुमर्हति इति ज्ञात्वा कथमहं सहिष्णुः सर्वसहो भविष्यामीति सततं चितनीयं भव्यजीवेन ।।११५।।
एवं "वदसमिदि"-इत्यादिना प्रायश्चित्तस्य लक्षणसूचनपरत्वेन द्वे सूत्रे को गुरु के पास अपनी गणिनी को साथ लेकर आलोचना करना चाहिये । यह आलोचना प्रकाशयुक्त स्थान में करनी चाहिये ।
दुसरी बात यह है कि रागादि विकारस्वभाव जो कषाय भाव हैं, वे हो महा अपराध हैं । इन भावों से ही अपने सहज विमल ज्ञान दर्शन सौख्य वीर्य स्वभाववाले आत्मा के भाव का और अन्य जीवों का घात होता है।
श्री अमृतचंद्रसूरि ने कहा भी है
निश्चय से रागादि भावों का उत्पन्न न होना ही अहिंसा है और इनकी उत्पत्ति ही हिंसा है-ऐसा जैनागम का संक्षिप्त सार है।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि जितेन्द्रिय महासाधु अपनी आत्मा से उत्पन्न सहज शुद्ध परमानंदमय, निर्विकार, निरामय-स्वस्थ भावों की रक्षा करने के इच्छुक होते हुए सर्व प्रयत्नपूर्वक अपने और पर के शत्रु ऐसे कषायों को जीते, तभी उनके परिणामों की निर्मलता से शुद्ध प्रायश्चित्त हो सकता है। ऐसा जानकर 'मैं कैसे सहिष्णु, सबंसह होऊँगा ?' भव्यजीब को सतत ऐसा चितवन करते रहना चाहिये ॥५११॥
___ इस प्रकार 'वदसमिदि' इत्यादि रूप से प्रायश्चित्त के लक्षण सूचित करने वाले दो सूत्र हुए, इसके बाद "कोहं खमया' इत्यादिरूप से अपराध के लिये मूल १. पुरुषार्थसिद्धधुपाम।