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नियमसार-प्राभृतस्
अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वृत्तिपरिसंखा । कture चि परितायो, विधित्तसयणासणं छट्ठ' ॥ अस्य बाह्यतपसः साफल्यं ब्रुवन्ति
सो णाम बाहिरतो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि । जेण य सद्धा जायदि जेण य जोगा ण होयंते ॥
श्रीसमन्तभद्रस्वामिनाऽपि प्रोक्तम्-
बाह्यं तपः परमकुश्चरमाचरस्थ माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् । आभ्यन्तरतपसो नामानि -
पायच्छित्त विणयं वेज्ावच्चं तब सजज्ञायं । झाणं च विउस्सग्गो, अब्भंतरओ तो एसो* ॥
तपोऽन्तरेण तीर्थंकरा अपि न सिद्धचन्ति ।
उक्तं च ग्रन्थकारैरेवान्यत्र मोक्षप्राभृतग्रन्थे -
अनशन, अवमोदर्य, रस परित्याग, वृत्तपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शयनासन ये छह बाह्य तप हैं ।
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इस बाह्य तप की सफलता दिखलाते हैं---
"वो हो बाह्य तप है, जिससे मन दुष्कृत को नहीं प्राप्त होता, जिससे श्रद्धा उत्पन्न होती है और जिससे मन, वचन, काय क्षीण नहीं होते हैं । "
श्री समंतभद्रस्वामी ने भी कहा है
हे भगवन् ! 'आपने अपने आध्यात्मिक तप को बढ़ाने के लिये परम दुर्धर बाह्य तप का आचरण किया ।'
अब अभ्यंतर तप के नाम बतलाते हैं
"प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्गं ये छह अभ्यंतर तप हैं ।
१. मूलाचार । ३. स्वयंभुस्तोत्र ।
तपश्चरण के बिना तीर्थंकर भी सिद्ध नहीं होते हैं -- ग्रन्थकार श्रीकुंदकुन्ददेव ने ही अन्यत्र मोक्षप्राभृत ग्रन्थ में कहा है
२. मूलाचार ।
४. मूलाधार ।