________________
नियमसार-प्रामृतम्
पुच्छणं - निराकरणम्, उत्क्षेपणम्, छेदनम्-- द्विधाकरणमिति प्रायश्चित्तस्यैतान्यष्टौ नामानि ज्ञातव्यानि भवन्तीति ।
असंयत सम्यग्दृष्टि वेशव्रतिनोऽपि स्वव्रतेषु वोषसम्भवे गुरूणां सकाशे प्रायfrei गृह्णन्ति सफलव्रतिनो मुनयः षष्ठगुणस्थाने प्रायश्चित्तं गृह्णति । उपरि उपरि आरोहमाणा निश्चयप्रायश्चित्ते तिष्ठन्ति इति ज्ञात्वा भवद्भिः स्वस्थव्रतानि निरतिचारं निर्दोषमीहमानैः स्वप्नेऽपि दोषे संजाते सति पाणिपुटभोजिनो गुरोरन्तिके प्रायश्चित्तं ग्रहीतव्यम् ॥ ११४॥
t
३२९
अना प्रायश्चित्तस्योपायं प्रदर्शयन्त्याचार्यदेषाः
कोहं खमया, माणं समदद वेणज्जवेण मायं च ।
संतोसेण थ लोह, जयदि खुए चहुविहकसाए ॥११५॥
खमया कोहं' क्षमूषु सहने' क्षमते सर्वमपि सहते सैवोत्तमक्षमा सर्वसहभावः, तेन भावेन क्रोधकषायम् । समद्दवेणज्जत्रेण माणं मायं च - मृदोर्भावो भार्दवम्, तेन सहितेन भावेन मानम्, ऋजोर्भाव आर्जवम् तेन भावेन मायापरिणामं च । संतोसेण
शोधन करना, ५ . धोना, ६. पोंछना- निराकरण करना, ७. फेंकना और ८. छेदन करना - टुकड़े करना, प्रायश्चित्त के ये आठ नाम जानने चाहिये ।
असंयत सम्यग्दृष्टि और देशव्रती भी अपने व्रतों में दोषों के हो जाने परगुरुओं के पास प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं । सकलव्रती मुनि छठे गणस्थान में प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं । और ऊपर-ऊपर चढ़ते हुए निश्चय प्रायश्चित्त में ठहरते हैं-- ऐसा जानकर अपने-अपने व्रतों को निरतिचार - निर्दोष चाहते हुए स्वप्न में भी दोष हो जाने पर पाणिपात्र में आहार लेने वाले ऐसे गुरु के समीप प्रायश्चित्त लेना चाहिये ॥११४॥
अब आचार्यदेव प्रायश्चित्त के लिये उपाय दिखलाते हैं-
अन्वयार्थ -- ( खमया कोहं समद्दवेणज्जवेण माणं मायं च ) क्षमा से क्रोध को, मार्दव परिणाम से मान को, आर्जव भाव से माया को और ( संतोसेण य लोहं ) संतोष वृत्ति से लोभ को (खु ए चतुविहसाए जयदि ) इस प्रकार निश्चय से मुनि चार प्रकार की कषायों को जीत लेते हैं ।
टीका --- 'क्षमूषु' धातु सहन करने में है। सब कुछ सहन करना हो उत्तम क्षमा है, यही सर्वसह भाव है। महामुनि इस क्षमाभाव से क्रोध कषाय को जीतले हैं। मृदुता को मार्दव कहते हैं, ऋजुता -- सरलता का भाव आर्जव है, समीचोन प्रकार
४२