________________
नियमसार-प्राभृतम् प्रायस्य यस्मिन् कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् । 'प्रायश्चित्तिचित्तयोः' (४३१११७) इति सुट् । अपराधो वा प्रायः, चित्त शुद्धिः, प्रायस्य चित्त प्रायश्चित्तम्, अपराधविशुद्धिरित्यर्थः ।"
आचारग्रंथेषु प्रोक्तं तत्सर्व व्यवहारनयालम्बनभूतं व्यवहारप्रायश्चित्तं वर्तते, तेनैव साध्यं निश्चयनयाश्रितपरमार्थप्रायश्चित्तमत्र नियमसारे वर्ण्यते । अथवा एभिर्वतसमितिशीलसंयमेन्द्रियनिग्रहपरिणामः सततं भावविशुद्धिवर्ततेऽतो भावनैमल्यमेव निश्चयप्रायश्चित्तं ज्ञातव्यम् ॥११३॥
अधुना कीदृग्भावनायां निभयप्रायश्चित् नाति साइको श्रीपुरोला:. कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं ।
पायच्छितं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ॥११४॥
कोहादिसगब्भावपखयप हुदिभावणाए णिगहणं-ये क्रोधमानमायालोभाः कषायास्ते स्वकीयभावा द्रव्यकर्मोदयनिमित्तेनोत्पद्यमाना अपि चेतनपरिणामाः, अथवा 'प्रायः' नाम अपराध का है, चित्त नाम शुद्धि का है और अपराध को विशुद्धि का नाम प्रायश्चित्त है ।
___ जो आचार ग्रन्थों में कहा है, वह सब व्यवहार नय के अवलंबन भूत होने से 'ट्यवहार प्रायश्चित्त' है । उसी द्वारा साध्य निश्चयनय के आश्रित परमार्थ प्रायश्चित इस नियमसार में वर्णित किया जा रहा है । अथवा इस व्रत, समिति, शोल, संयम और इन्द्रियनिग्रह परिणामों द्वारा सतत भाव-विशुद्धि होती है, इसलिये भावों की निर्मलता ही 'निश्चय प्रायश्चित्त' है ऐसा जानना चाहिये ।।११३।।
अब कैसी भावना के होने पर निश्चय प्रायश्चित्त होता है ? ऐसी आशंका होने पर श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं
____ अन्वयार्थ (कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए) क्रोधादि स्वकीय भावों के क्षय आदि को भावना को (णिग्गहणं) स्वीकार करना (पायच्छित्तं भणिद) प्रायश्चित्त कहलाता है। (य णिच्छयदो णिय गुणचिंता) और निश्चय से निजगुणों की चिन्ता करना प्रायश्चित्त है ।
टोका-जो क्रोध, मान, माया और लोभ कषायें हैं, वे स्वकीय भाव हैं । ये द्रव्यकर्म के उदय के निमित्त से उत्पन्न होते हुए भी चेतन के परिणाम हैं, क्योंकि १. तत्त्वार्थवासिक, १० १, सूत्र २२ ।