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नियमसार-प्राभृतम्
प्रायश्चित्तं-अपराधं प्राप्तः सन् येन तपसा पूर्वकृतपापाद् विशुद्धयत, है स्फुट पूर्व व्रतैः सम्पूर्णो भवति तत्तपः, तेन कारणेन दशप्रकारं प्रायश्चित्तमिति । के ते दशप्रकारा इत्याशंकायामाह---
आलोयणपडिकमणं, उभयविवेगो तहा बिउसगो।
तव छेवो मूलं बिय परिहारो व सहहणा ॥' सूत्रकारैः श्रीउमास्वामिसूरिभिः श्रद्धानमंतरेण नवविधमेव प्रायश्चित्त णितम् । तथाहि प्रोक्तं तत्त्वार्थसूत्रे--
"आलोचनप्रतिक्रमणतवुभयविवेकव्युत्सर्गतपच्छेदपरिहारोपस्थापनाः ॥९॥२२॥ श्रीभट्टाकलंकदेवेन प्रायश्चित्तस्य बहवो गुणा वणिता:--
"प्रमावदोषव्यवासः, भावप्रसादः, नैःशल्यम्, अनवस्थावतिः, मर्यादाऽत्यागः, संयमवाढीमाराधनमित्येवमादीनां सिद्धयर्थं प्रायश्चित्तं नवविध विधीयते । प्रायः-साएलोकः,
गराध को प्राप्त होत र मुगि मिस रूप के द्वारा पूर्वकृत पाप से विशुद्ध हो जाता है—पूर्व में ग्रहण किये गये व्रतों से परिपूर्ण हो जाता है, वह तप उसी कारण से दश प्रकार के प्रायश्चित्तरूप है।
बे दश प्रकार कौन से हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार, और श्रद्धान ये दश भेद प्रायश्चित्त के हैं।
सूत्रकार श्री उमास्वामी आचार्य ने श्रद्धान के बिना नवप्रकार के ही प्रायश्चित्त कहे हैं । देखिये
____ आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना ये नव भेद प्रायश्चित्त के हैं।
श्री भट्टाकलंक देव ने प्रायश्चित्त के बहुत से गुण बतलाये हैं--
प्रमाद के दोष का दूर होना, परिणामों का निर्मल होना, शल्यरहित होना, अनवस्थावृत्ति होना, मर्यादा का त्याग न होना, संयम की दृढ़ता का होना और आराधना का होना, इसी प्रकार के और भी गुणों की सिद्धि के लिये नव प्रकार का प्रायश्चित्त माना गया है।
प्रायः का अर्थ है साधुसमुदाय, उन साधुसमुदाय का जिस क्रिया में चित्त है वह प्रायश्चित्त है। "प्रायाच्चित्तिचित्तयाः" इस सूत्र से सुट् प्रत्यय होता है । १. मुलाचार-अधिकार ५, गाथा १६५ ।