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नियमसार-प्राभृतम् यत्र प्रतिक्रमणमेव विष प्रणीतम्, तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । सक्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः,
कि नोयमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमावः' । तात्पर्यमेतत्--निजनिरंजननिविकारशुद्धबुद्धपरमात्मतस्याश्रितनिश्चयध्यानमेव सर्वातिचारस्य निराकरणं करोतीति मत्वा ध्यानध्यातध्येयभेदोऽपि कथं न स्यादिति भावनया भवाब्धेः पारं गन्तुं प्रयत्नो भवता सततं विधेयः ॥१३॥
इममधिकारमुपसंहर्तुकामा व्यवहारप्रतिक्रमणस्य साफल्यं प्रदर्शयन्त्याचार्यदेवाः
पडिकमणणामधेये, सुत्ते जह वग्णिदं पडिक्कमणं । तह णच्चा जो भावइ, तस्स तदा होदि पडिक्कमणं ॥९॥
"जहाँ पर प्रतिक्रमण ही विष कहा गया है, वहाँ पर अप्रतिक्रमण ही अमृत कैसे हो सकता है ? इसलिये मुनिजन नोचे-नीचे गिरते हुये प्रमाद क्यों करते हैं ? निष्प्रमादी होकर ऊपर-ऊपर क्यों नहीं चढ़ते हैं ? भावार्थ-जहाँ पर मुनि अवस्था में प्रतिक्रमण को विष कह सकते हैं, वहाँ प्रतिक्रमण नहीं करना अमृत नहीं है, प्रत्युत ध्यानरूप निश्चय प्रतिक्रमण ही अमृत है । इसलिये प्रमाद न करते हुए छठे गुणस्थान में प्रतिक्रमण करना चाहिये और आगे ध्यान में लीन होकर निश्चय प्रतिक्रमण करना चाहिये।
यहाँ तात्पर्य यह हुआ कि निज निरंजन निर्विकार शुद्ध बुद्ध परमात्म तत्त्व के आश्रित ध्यान ही संपूर्ण अतीचारों को दूर करता है ऐसा मानकर ध्यान, ध्याता और ध्येय का भेद भो किसो प्रकार से न हो सके-ऐसी भावना करते हुए संसार समुद्र के पार जाने के लिये आपको सतत प्रयत्न करते रहना चाहिये ।।९३।।
__ अब इस अधिकार के उपसंहार को इच्छा रखते हुए श्री आचार्यदेव व्यवहार प्रतिक्रमण की सफलता दिखला रहे हैं
अन्वयार्थ (पडिकमणणामधेये सूत्तं जह पडिक्कमणं वणिदं) प्रतिक्रमण नाम के सूत्रों में जैसा प्रतिक्रमण का वर्णन किया गया है, (जो तह ण चचा भावइ) जो मुनि वैसा ही जानकर भाते हैं, (तस्स तदा पडिकमणं होदि) उनके उस काल में प्रतिक्रमण होता है। १. समयसारकलश ।