________________
नियमसार-प्राभृतम्
२८९ यिकदर्शने वा चारित्रे च श्रावकापेक्षया देशचारित्रे संयतापेक्षया सकल चारित्रे यथाख्यातचारित्रे वा ममात्मास्ति । पच्चवखाणे आदा-प्रत्याख्याने सर्वोपध्याहारकषायादित्यागे ममात्मास्ति । संवरे जोगे में आदा-सर्वास्त्रवनिरोधलक्षणे संवरे, शुभव्यापारे योगे परमसमाधिलक्षणे योगे या ममात्मास्ति । तद्यथा
ज्ञानदर्शनचारित्रप्रत्याख्यानसंवरयोगाः सर्वेऽमी आत्मनि वर्तन्ते । एभ्यो व्यतिरिक्तं यत्किमपि तत्सर्व त्याज्यमस्ति-इति ज्ञात्वा यावदिमे आत्मनि न प्रावभवेयुस्तावत् परमात्मनां शरणं ग्रहीतव्यम्, पुनः निःस्पृहो मुनिभूत्वा ज्ञानस्य दर्शनस्य चारित्रस्य प्रत्याख्यानस्य संवरस्य योगस्य च शरणं गृहीत्वा ज्ञानदर्शनादिस्यभावपरमानंदैकलक्षणस्य स्वात्मनः शरणं ग्रहीतच्यम् । उक्तं च मूलाचारे
णाणं सरणं मे, दंसणं च सरणं च चरियसरणं च ।
तष संजमं च सरणं, भगवं सरणो महावीरो॥ मेरी आत्मा है। श्रावक को अपेक्षा देशचारित्र में, मुनि की अपेक्षा सकलचारित्र में अथवा यथाख्यात चारित्र में मेरी आत्मा है । सर्व परिग्रह, आहार, कषाय आदि के त्याग में मेरी आत्मा है। सर्व आस्रवनिरोध लक्षण संवर में, शुभच्यापार लक्षण योग में अथवा परमसमाधिलक्षण योग में मेरी आत्मा है।
उसी को कहते हैं--
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर और योग--ये सभी आत्मा में रहते हैं । इनसे अतिरिक्त जो कुछ भी है, वह सब त्याज्य है । ऐसा जानकर जब तक ये सब अपनी आत्मा में प्रगट न हो जावें, तब तक परमात्मा की शरण लेना चाहिये ! पुनः निःस्पृह मुनि होकर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संबर और योग की शरण लेकर ज्ञान-दर्शन आदि स्वभाव परमानंद एक लक्षण वाली ऐसी अपनी आत्मा की शरण लेनी चाहिये ।
मूलाचार में कहा भी है--
मेरे लिये ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है, तप और संयम शरण हैं और भगवान महावीर मेरे लिये शरण हैं।
भावार्थ--गाथा में यह कथन है कि ज्ञान-दर्शन आदि में मेरो आत्मा है । १. मूलाचार अध्याय २ गाथा ९६ ।