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नियमसार-प्रामृतम्
२९९ मदशमद्वादशपक्षार्द्धपक्षमासादिकालाविपरिमाणेनोपवासादिकरणम् । ८. अपरिशेष यावज्जीवं चतुर्विधाहारादिपरित्यागोऽपरिशेषम् । ९. अध्वानगतं-अध्वगतं, मार्गविषयाटवीनह्यादिनिष्क्रमणद्वारेणोपवासादिकरणम् । १०. सहेतुकं-उपसर्गादिनि. मित्तापेक्षमुपवासादिकरणमिति ।
ये केचिद् भव्योत्तमा जनेश्वरौं दीक्षामाबाय सुठूतया स्वाचरणविधि ज्ञात्वा मूलाचारमया भवन्ति, त एवं प्रत्याख्यानेन परिणताः सन्तो निश्चयनियमसारा भविष्यन्ति न चान्थे।
उक्तं च श्रीसमंतभद्रस्वामिना-- "बाहां तपः परमदुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिवृहणार्थम् ।"
७ बेला, तेला, चौला, पाँच उपवास आदि से लेकर पक्ष, अर्धपक्ष, मास आदि काल के परिमाण से किये गये उपवास आदि 'परिमाणगत प्रत्याख्यान' कहलाते हैं।
८ यावज्जीवन चार प्रकार के आहार का त्याग कर देना अपरिशेष प्रत्याख्यान' है।
९ मार्ग के विषय में बन नदी से निकलते समय उपवास आदि कर लेना 'अध्वानगत प्रत्याख्यान' है।
१० उपसर्ग आदि के आ जाने पर उस निमित्त से उपवास आदि करना 'सहेतुक प्रत्याख्यान' है।
जो कोई भव्योत्तम जैनेश्वरी दीक्षा को लेकर अच्छी तरह से अपने आचार की विधि को जानकर मूलाचारमय हो जाते हैं वे ही प्रत्याख्यान रूप से परिणत होते हुए निश्चय नियमसाररूप हो जाते हैं, अन्य नहीं।
श्री समंतभद्रस्वामी ने कहा भी है
"हे भगवन् ! आध्यात्मिक तप की वृद्धि के लिये आपने परम कठोर बाह्य तप का आचरण किया है।" - - १. यह गाथा मुलाचार में अ० २ में है ।
२. मूलाधार अध्याय ७ ।