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नियमसार - प्राभूतम्
मूलायुन्मूलयति, तदा क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्जायते । तहि तस्य संसारसंततिरधिकतमेन चतुर्भवमात्रमेव । पुनः क्रमेण पुरुषार्थबलेनासौ संयतो भूत्वा द्रव्यक्षेत्र कालभावानामनुकूल सामग्री लब्ध्वा स्वाधीनपरमसमरसी भावोत्पन्नपरमानन्दलक्षणपरमशुक्लध्यानं ध्यायति, तदा शुद्धोपयोगी परमश्रमणः सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानस्य चरमसमये चारित्रमोहं समूलमुन्मूल्य उछिनत्ति । यावदयं कर्मवृक्षो रागद्वेषादिजलेन सिध्यते तावत्पुष्यति फलति वर्धते नरकनिगोदाविकदुकफलमपि ददाति । अतः कथमपि त्वया रागादिविभावभावानां परिहारः कर्तव्यः तपः तपनप्रभावेणायं तरुः शोषयितव्यश्च ।
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अक्षवः । दिगंबरमुनयः स्वस्य शिरः कूर्चादिकेशानां लु'चनं कृत्वा मस्तकमुंडा भूत्वा शरीरान्निर्ममत्वमुद्द्घोषयन्ति । तदानीमेव ते दशविधं मुण्डनं कर्तुं क्षमन्ते । के ते दशमुंडा इति चेत् ? उच्यते, यतिप्रतिक्रमणसूत्रे तदुक्तं वर्तते । तथाहि
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बंधी कषायों की चार ऐसी सात प्रकृतियों को मूल से नष्ट कर देता है, तब वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है और तब उसकी संसारपरंपरा अधिकतमरूप से चार भव मात्र ही रह जाती है ।
पुनः क्रम से यह पुरुषार्थं के बल से संयमी होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों के अनुकूल सामग्री को प्राप्त कर अपनी आत्मा के आश्रित परमसमरसीभाव से उत्पन्न परमानंद लक्षण परमशुक्लध्यान को ध्याते हैं, तब शुद्धोपयोगी परम श्रमण सूक्ष्म सांप रायगुणस्थान के चरम समय में चारित्रमोह को जड़मूल से नष्ट कर देते हैं । जब तक यह कर्मवृक्ष रागद्वेषादि जल से सिंचित होता रहता है, तब तक पुष्पित, फलित और वृद्धिंगत होता रहता है तथा नरक, निगोद आदि कटुक फल को भी देता रहता है । इसलिये तुम्हें जैसे बने वैसे रागादि भावों का परिहार कर देना चाहिये और तपश्चरणरूपी सूर्य के प्रभाव से यह वृक्ष सुखाना चाहिये ।
अथवा लुंचन का अर्थ है लोच । दिगंबर मुनिराज अपने सिर और दाढ़ीमूछ के बालों का लोच करके मस्तक मुंडित होकर शरीर से निर्ममता को प्रगट करते हैं । तभी वे दश प्रकार के मुंडन को करने में समर्थ होते हैं ।
शंका --- वे दश मुंडन कौन से हैं ?
समाधान — कहते हैं, "यतिप्रतिक्रमणसूत्र' में जो कहा है, उसे ही बताते
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