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गाथा
नियमसार प्राभृतम्
"दस विहर्मुडाणं दशप्रकारमुंडानाम् । मुण्डनं निरोधनं, मुण्डो दशप्रकार:पंच fa इंदियमुण्डा मुिंडा ह्त्यपायतणुमुंडा । मणमुंडेण य सहिया दसमुंडा वण्णिदा समए ॥
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एवं दशधा मुंडनं कृत्वैव मुनयः परमसमाधी स्थित्वा स्वात्मजन्यस्वाधीनपरिणामेन कर्मविषवृक्षमुच्छिता सम्बीतस्तावत्व संपवत्कालं परमस्वतंत्र सौख्यमनुभविष्यन्तीति ज्ञात्वा इवं चिन्तयितव्यं यत्सति द्वितीये चिता कर्म ततस्तेन वर्तते जन्म । एकोऽस्मि सफलचतारहितोऽस्मि मुमुक्षुरिति नियतम् ॥
आलोचनायास्तृतीयप्रकारं वर्णयन्ति श्रीकुन्दकुन्ददेवा:---
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कम्मादो अप्पाणं, भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं । वियडीकरणं ति विष्णेयं ॥ १११ ॥
मज्झत्थभावणाए,
हैं । दश प्रकार के मुंडन होते हैं। यहां मुंडन का अर्थ निरोध करना है ।
पाँच इन्द्रियों का मुंडन, वचनमुंडन, हाथ, पैर और शरीर का मुंडन तथा मन का मुंडन -- ये दश मुंडन आगम में कहे गये हैं । इन दशमुंडन अर्थात् निरोध को करके ही मुनिराज परमसमाधि में स्थित होकर आत्मा से उत्पन्न स्वाधीन परिणाम से कमविषवृक्ष को उखाड़ कर स्वाधीन पूर्ण स्वतंत्र साम्राज्यरूप ऐसी मोक्ष-पक्ष्यो को प्राप्त करके शाश्वत काल तक परम स्वतंत्र सुख का अनुभव करेंगे, ऐसा जानकर यही चितवन करना चाहिये कि ----
दूसरे के होने पर चिंता होती है, चिंता से कर्मबंध होता है और कर्मों से जन्म लेना पड़ता है । इसलिये मैं एक हूँ, सकल चिताओं से रहित हूँ और निश्चित ही मुमुक्षु हूँ। ऐसी भावना भरने को श्री पद्मनंदि आचार्य ने कहा है ।। ११० ॥
अब श्री कुंदकुंददेव आलोचना के तीसरे भेद को कहते हैं
अन्वयार्थ -- ( अप्पाणं कम्मादो भिष्णं विमलगुणणिलयं भावेइ) जो आत्मा को कर्मों से भिन्न और विमल गुणों के स्थानरूप भाते हैं, (मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विष्णेयं) माध्यस्थ भावना होने पर उनके विकृतीकरण नाम की
आलोचना होती है ।
१. अतिक्रमणयन्यत्रयी, पृ० १४७, तथा मूलाचारगाथा १२१ ।
२. पद्मनंदिपंचविशतिका, निश्चयपंचाशत् ।