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नियमसार-प्राभृतम्ं
कम्मादो भिणं विमलगुणणिलयं अप्पाणं भावेइ - यः कश्चिद् जातरूपधारी संयमी कर्मभ्यो द्रव्यकर्मभावकर्मनो कर्मभ्यो भिन्नम्, इमानि कर्माणि जडरूपाणि तेभ्यो भिन्नं विमलगुणराजीनां निलयमास्पदं ज्ञानदर्शनस्वभावं शुद्धात्मानं भावयति जानाति अनुभवति, तस्य मुनेः, मज्झत्थभावणाए-तस्यां मध्यस्थभावनायां वीतरागभावनायां मध्ये | वियडीकरणं ति विष्णेयं विकृतीकरणम् इति आलोचनाप्रकारो विज्ञेयो भवद्भिः ।
तद्यथा-
अत्रापि 'विअडोकरणं' इति स्वीकरणे विकटीकरणं प्रकटीकरणं ग्राह्यं विकृतीकरणमाविष्करणं चास्य विस्तरः प्राग् निरूपितः । अथवा --
मयि चेतः परजातं तच्च परं कर्म विकृतिहेतुरतः । किं तेन निविकारः केवल महममलोषात्मा ॥
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टीका - जो कोई नग्नमुद्राधारी संयमी द्रव्यकर्म और नोकर्म इन जड़कर्मों से भिन्न और विमल ज्ञानदर्शन गुण स्वभाव अपनी शुद्धात्मा को भाते हैं-जानते हैं, अनुभव करते हैं, उन मुनि के उस मध्यस्थ भावना में - वीतराग भावना में विकृतीकरण नाम का यह आलोचना का भेद होता है, ऐसा आपको जानना चाहिये ।
उसी को कहते हैं-- यहाँ पर भी 'विअडीकरणं' ऐसा पाठ स्वीकार करने पर विकटीकरण, अर्थात् प्रकट करना ऐसा अर्थ लेना चाहिये । तथा विकृतीकरण का भी आविष्कृत करना - प्रकट करना यही अर्थ है । इसी को पहले विस्तार से कह चुके हैं ।
अथवा --
मेरा जो चित्त है, वह पर से उत्पन्न हुआ है और वह जो पर है, उसे कर्म कहते हैं, वह कर्म विकृति का हेतु है । इसलिये उस विकृति से मुझे क्या प्रयोजन है ? मैं तो निर्विकार हूँ, केवल हूँ और अमलज्ञानस्वरूप हूँ ।
१. पचनंदिचविंशतिका, निश्वयभाषत् ।