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श्रथ शुद्ध निश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः
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जयंतु ते शांतिजिनेशिनः षोडशतीर्थकर कामदेवश्रीधारिणः पंचमचक्रवतिनश्च । ये षण्णवतिसहस्रकामिनीनां भर्तारोऽपि देशसंयमिनः तेषु देशयतेषु अणुमात्रमपि दोषानवकाशतया गार्हस्थ्येऽपि निर्दोषिणः, किं पुनः श्रामण्ये | अतः स्वयं प्रायश्चित्तविकला अपि श्रावकाणां मुमुक्षुसाधूनां च शुद्धधर्थं प्रायश्चित्तविधानकुशला घर्मतीर्थकराः सिद्धिवधूवराः प्राणिनां प्रीणयितार: शान्त्येषिणां शान्तिविधातारश्च मे शान्ति प्रयच्छन्तु ।
सोलहवें तीर्थंकर कामदेवपद के धारी और पाँचवें चक्रवर्ती वे श्री शांतिनाथ जिनराज जयशील होवे, जो छयानवें हजार रानियों के पति होते हुए भी देशव्रती थे, उन देशव्रतों में अणुमात्र भी दोषों को अवकाश न मिलने से गृहस्थावस्था में भी वे निर्दोष थे, फिर मुनि अवस्था की तो बात ही क्या है ? इसलिये वे स्वयं प्रायश्चित्त से रहित होते हुए भी श्रावक और मुमुक्षु साधुओं की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त विधान में कुशल, धर्मतीर्थ के करने वाले, सिद्धिवधू के स्वामी, प्राणियों को संतुष्ट करनेवाले, शांति के इच्छुक जनों को शांति के देनेवाले शांतिनाथ भगवान् मुझे शांति प्रदान करें ।
भावार्थ - शांतिनाथ भगवान् पाँचवें चक्रवर्ती थे, इनके छयानवें हजार रानियाँ थीं, फिर भी जिस श्रावक के अणुव्रत आदि किसी व्रत में दोष लग जाता है या अनाचार हो जाता है, उसे ही प्रायश्चित्त करना पड़ता है। तीर्थंकर के जीवन में न उन्हें किसी व्रत में दोष ही लगता है, न प्रायश्चित्त का प्रसंग आता है, चूँकि ये किसी को गुरु नहीं बनाते हैं । जब उनका गार्हस्थ जीवन इतना अपने पद क अनुकूल निर्मल - निर्दोष रहता है, तो मुनि अवस्था में तो दीक्षा लेते हो परिणामों की निर्मलता से मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो जाता है । वास्तव में चक्रवर्ती आदि महापुरुषों के हजारों रानियाँ होते हुए भी वे श्रावक व्रत से सहित रहते हैं । किन्तु कदाचित् यदि किसी ने परस्त्री की भावना भी कर ली, तो वह सदोष माना जाता है, जैसे कि रावण । यहाँ अभिप्राय यही है कि हजारों रानियाँ होने पर भी अणुव्रती श्रावक निर्दोष हैं और एक परस्त्री का सेवन करने वाला या परस्त्री की भावना