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अत एक
नियमसार-प्राभृतम् त्याज्या सर्वा चितेति बुद्धिराविष्करोति तत्तत्त्वम् ।
चंद्रोदयायत यच्चैतन्यमहोवा मांगति ॥ इति पद्मनंद्याचार्यस्योपदेशेन सर्वामपि चिन्तां परित्यज्य गुरोः सकाशे दोषालोचनया स्त्रमात्मानं कर्मभ्यः पृथगनुभूय मनःशुद्धि विधाय वीतरागसाम्यभावो भवताश्रयणीयः ॥११॥ अधुनालोचनायाश्चतुर्थप्रकारं निरूप्य प्रकृतमुपसंहरन्त्याचार्यदेवाः
मदमाणमायलोह विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पद रिसीहि ॥११२॥
मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति-पुरुषस्त्रीनपुंसकवेदेषु अन्यतमस्योदये सति रागपरिणामो मदः । टीकाकारैः श्रीपद्मप्रभमलधारोदेवैरपि प्रोक्तम्--"अन मवशब्देन मदनः कामपरिणाम इत्यर्थः ।" संज्वलनमानकषायोद
इसलिये-सभी चिता त्याग करने योग्य है, ऐसी बुद्धि उस तत्त्व को प्रगट करती है कि जो चैतन्यरूपी महासमुद्र को बढ़ाने के लिये शीघ्र ही चंद्रमा के उदय के समान आचरण करती है।
इसी प्रकार पधनंदी आचार्य के उपदेश से सभी चिता को छोड़कर गुरु के पास में दोषों की आलोचना द्वारा मन की शद्धि करके अपनी आत्मा को कर्मों से पृथक् अनुभव करके आपको वीतराग साम्यभाव का आश्रय लेना चाहिये ॥११२॥
___ अब आचार्यदेव आलोचना के चौथे भेद को कहकर प्रकृत अधिकार का उपसंहार करते हैं
अन्वयार्थ--(मदमाणमायलोहक्विज्जियभावो दु भावसुद्धि ति) मद, मान. माया और लोभ से रहित भाव होना ही भावशुद्धि है। (लोयालोयप्पदरिसोहिं भब्वाणं परिकहियं) लोकालोकप्रकाशी श्री जिनेंद्रदेव ने भव्य जीवों के लिये यह कहा है।
____टीका--पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेदों में से किसी एक वेद का उदय होने पर जो रागपरिणाम होता है, उसे मद कहते हैं। टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी देव ने भी कहा है कि--"यहाँ पर मद शब्द से मदन-कामपरिणाम ऐसा
१. पचनदिपंचविषातिका, निश्चयपंचाशत् ।