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नियमसार - प्राभूतम्
कम्ममहीरुह मूलच्छेदसमत्यो- अष्टविधकर्माण्येव महीरुहो वृक्षः, तं मूलादुच्छे समर्थः । साहीणो समभावो सकीय परिणामो-स्वाधीनः परभावाद् व्यतिरिक्तः स्वात्माश्रितः समरसीभावपरिणतो यः कश्चित् स्वकीयपरिणामः । आलुछणं इदि समुद्दिट्ठ- स एव आलु छननिति समुद्दिष्टमांस्त यतीनामाचारग्रन्थे । अथवा प्राकृतव्याकरणे लुछधातुः परिमार्जनेऽयं वर्तते, लुंच्यातुरपनयने च । संस्कृतव्याकरणे लुच्धातुः कृतित्वा दूरीकरणेऽर्थे कुंछुधातुर्नास्त्येव । तथा च मूलाचारेऽपि 'आलोयणमालुंचण' इति पाठो बृश्यते । ततोऽत्रापि 'आलु छण' -स्थाने आलु चणेति पाठो विचारणीयः, प्राचीनग्रन्थेऽन्वेषणीयश्च विद्वबुभिः । तथया - ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणामुसरभेवा अष्टचत्वारिंशदधिकशतानि असंख्यात लोकप्रमाणं वा । एषां मूलकारणं केवल मोहनीयकर्म एव तदपि द्वेधा दर्शनमोहचारित्र मोहभेदात् । यथा कश्चिद् भव्यः कालादिलब्धिवशेन करणलबिंध संप्राप्य दर्शन मोहत्रिकमनन्तानुबंधिचतुष्कं च
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वह स्वाधीन समभाव (आलुछणं इदि समुद्दिट्ठ) आलुंछन इस नाम से कहा गया है । टीका - आठ प्रकार के कर्म, वही हुआ वृक्ष, उसकी जड़ को मूल से उखाड़ने में समर्थ, परभाव से अतिरिक्त आत्माश्रित समरसीभाव से परिणत जो कोई अपनी आत्मा का अपना परिणाम है, मुनियों के आचारग्रंथ में वही 'आलुंछन' इस नाम से कहा गया है । अथवा प्राकृत व्याकरण में लुंछ धातु परिमार्जन अर्थ में है और लुं धातु दूर करने अर्थ में है । संस्कृत व्याकरण में लुच् धातु काटंकर दूर करने अर्थ में है और लुंछ धातु है ही नहीं । उसी प्रकार मूलाचार में भी 'आलोयणमालुंचण' आलोचन और आकुंचन ऐसा पाठ देखा जाता है, इसलिये यहाँ भी 'आलुंछण' के स्थान में 'आलुंचण' यह पाठ विचारणीय है । विद्वानों को प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों में इसकी खोज करनी चाहिये ।
इसी को विस्तार से कहते हैं
ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के उत्तर भेद एकसी अड़तालीस हैं अथवा असंख्यात लोकप्रमाण हैं । इनका मूल कारण केवल मोहनीय कर्म ही है, इसके दो भेद हैं- दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय । जब कोई भव्य जीव काल आदि लब्धि के वश से करणलब्धि को प्राप्त करके दर्शन मोहनीय की तीन और अनंता -