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विश्रभसार-पा
आश्रित्य व्यवहारमार्गमथवा मूलोत्तराण्यान् गुणान, साधोर्धारयतो मम स्मृतिपथप्रस्थायि यद वृषणम् । शुद्ध तदपि प्रभो ! तत्र पुरः सज्जोऽहमालोचितुम्, निःशल्यं हृदयं विधेय मजडैर्भव्यैर्यतः सा ॥९॥ किच- यावदयं दोषान् नालोचयति तावन्मनसि शल्यमिव क्षुभ्यति । rassलोच्य शुद्धो जायते तदा निराकुलं शान्तं लघु च स्वमनुभूय स्वस्थचित्तो भवति ।
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इयं निश्चयालोचना अप्रमत्तमुनीनां धर्म्यध्याने शुक्लध्याने सिद्धयति, न ततः प्रागिति ज्ञात्वा व्यवहारालोचनां कृत्वा निश्चयालोचना कदा कथं या मे लभेत इत्थमन्वहं चितनं कर्तव्यम् ॥ १०९ ॥
आलोचनाया द्वितीयप्रकारस्य लक्षणं कथयन्त्याचार्याः ---
कम्म महीरुह मूलच्छेद समत्थो सकीयपरिणामो । € साहिणो समभावो आलु छणमिदि समुद्दिट्टं ॥११०॥
मार्ग का आश्रय करके अथवा मूल एवं उत्तरगुणों को धारण करने वाले मुझ साधु को जो दूषण स्मरण में आ रहा है, उसकी भी शुद्धि के लिये हे प्रभो ! मैं आपके आगे आलोचना करने के लिये उद्यत हुआ हूँ, कारण यह कि विवेकी भव्य जीवों को चाहिए कि वे सब प्रकार से अपने हृदय को शल्यरहित करें ।
दूसरी बात यह हैं कि जब तक कोई मुनि दोषों की आलोचना नहीं करते हैं, तब तक मन में शल्य के समान वह दोष चुभता रहता है । जब आलोचना करके शुद्ध हो जाते हैं, तब वे अपने को निराकुल, शांत और हल्का अनुभव करके स्वस्थचित्त हो जाते हैं ।
यह निश्चय आलोचना अप्रमत्त मुनियों के धर्मध्यान और शुक्लध्यान में सिद्ध होती है, उसके पहले नहीं, ऐसा जानकर व्यवहार आलोचना करके निश्चयआलोचना कब और कैसे मुझे प्राप्त होगी ? ऐसा सतत चिंतन करते रहना चाहिये ||१०९ ||
अब आचार्यदेव आलोचना के दूसरे भेद का लक्षण कहते हैं---
अन्वयार्थ – (सकोयपरिणामो कम्म महीरुहमूलच्छेदसमस्थो) जो आत्मा का अपना परिणाम कर्मरूपो वृक्ष को जड़ से उखाड़ने में समर्थ हैं, (साहीणो समभावो) १. पचनन्दिचविंशतिका, आलोचनाविकार ।
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