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नियमसार - प्राभृतम्
जैनीश्वरों मुद्रां गृहीत्वा तीर्थंकरस्य पादमूले अष्टवर्षं यावत् प्रत्याख्यानाख्यं पूर्वमध्येति स परिहारविशुद्धिसंयमं संप्राप्य त्रिसंध्योनद्विगतिमन्वहं विहरति । अयं जीवाकुले लोके विहरन्नपि जलात्कमलमिद किया न लिप्यलेोऽस्य वयशिवस्यापि नियमो नास्ति ।
तात्पर्यमेतत् — ये तपोधनाः सर्वारंभपरिग्रहनिर्मुक्ताः सहजविमलकेवलज्ञानदर्शसुलवीर्यस्वभावस्यात्मनो व्यतिरिक्ते रत्नत्रयसाधने शरीरेऽपि ममत्वमकृत्वा विहरंतित एव स्वपरभेदविज्ञानबलेन स्वेच्छयाऽपि उपवासादितपश्चरणानि कर्तुं शक्नु वन्ति । किच "देह एवात्मधीः मूल संसारदुःखस्य" इतिवचनात् शरीरान्निःस्पृहा मुनयः स्वात्मजन्यपरमानंदपीयूषं पिबन्तोऽशरीरा अपि ज्ञानशरीरा सिद्धा भविष्यन्तीति ज्ञात्वनशनादिकं कुर्वता निजपरमात्मतत्त्वं भवता सततं चितनीयम् ।
श्री पूज्यपादस्वामिनोऽपि इयमेव प्रेरणास्ति-
पुन: जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर तीर्थंकर केवली के पादमूल में आठ वर्ष पर्यंत प्रत्याख्यान नाम के पूर्व का अध्ययन करते हैं वे परिहारविशुद्धि नाम के संयम को प्राप्त करके तीनों संध्या कालों को छोड़कर शेष काल में दो कोश तक प्रतिदिन विहार करते हैं । वे महामुनि इस जीव समूह से खचाखच भरे हुए लोकमें विहार करते हुए भी जल में कमल के समान हिंसा से लिप्त नहीं होते हैं इसलिये इन्हें वर्षायोग करनेका वर्षाकाल में एक जगह रहने का भी नियम नहीं है । तात्पर्य यह है कि जो तपोधन संपूर्ण आरंभ परिग्रह से मुक्त होकर सहज बिमल केवलज्ञान दर्शन सुख वीर्यं स्वभावी जो अपनी आत्मा है, उससे भिन्न रत्नत्रय के साधनरूप शरीर में भी ममत्व न करते हुए विहार करते हैं । वे ही स्व-पर में भेदविज्ञान के बल से अपनी इच्छानुसार भी उपवास आदि तपश्चरण करने में समर्थ हो जाते हैं । क्योंकि 'शरीर में आत्मबुद्धि करना ही संसार दुःखों का मूल कारण है।' इस वचन के निमित्त निःस्पृह हुए वे मुनिराज अपनी आत्मा से ही उत्पन्न हुए परमानंद अमृत को पीते हुए अशरीरी आत्मा होते हुए भी ज्ञानशरीरी सिद्ध भगवान् हो जाते हैं, ऐसा जानकर आपको अनशन आदि तप करते हुए निजपरमात्म तत्त्व की सतत भावना करते रहना चाहिए ।
श्री पूज्यपादस्वामी ने भी यही प्रेरणा दी है-