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नियमसार- प्राभृतम्
सप्तद्धसमन्वितमन:पर्ययज्ञानधारिगणधर देवग्रथितपरमागमे आलोचनाया लक्षणं पूर्वोक्तं चतुविधं परिकथितमस्ति ।
इतो विस्तर:
विकृतीकरणं दोषाणामाविष्करणं रागद्वेषादिविकारपरिणामानां परिवर्तनं न करणमिति वा । उक्तं च मूलाचारे---
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मुनीनामाचारशास्त्रे
आलोचणमाचण विगडीकरणं च भावसुद्धी बु । आलोचितम्हि आराषणा अणालोचणे भज्जा ॥"
"आलोचनमाल' चनमपनयने विकृतीकरणमाविष्करणं भावशुद्धिश्चेत्येकोऽर्थः । अथ किमर्थमालोचनं क्रियत इत्याशंकायामाह यस्मादालोचिते चारित्रा
सर्वज्ञदेवप्रणीत और सात ऋद्धि से सहित, मन:पर्ययज्ञानधारी श्री गणघरदेव द्वारा ये गये परमागम में अथवा मुनियों के आचारशास्त्र में आलोचना के लक्षण पूर्वोक्त चार प्रकार के कहे गये हैं ।
इसी का विस्तार कहते है -- विकृतीकरण का अर्थ है दोषों को प्रकट करना, रागद्वेष आदि विकार परिणामों का परिवर्तन करना अथवा दोषों का नहीं
करना ।
मूलाचार में कहा है
आलोचन, आलंबन, विकृतीकरण और भावशुद्धि में एकार्थवाची हैं । आलोचना करने पर आराधना होती है और नहीं करने पर विकल्प है ।
आलोचन और आकुंचन इन शब्दों का अर्थ अपनयन- दूर करना है । विकृतीकरण कर अर्थ दोषों को प्रकट करना है तथा भावशुद्धि का अर्थ परिणामों की निर्मलता है। ये चारों ही शब्द एक अर्थ को कहने वाले हैं ।
किसलिये आलोचना की जाती है ?
गुरु के सामने चारित्राचारपूर्वक दोषों की आलोचना कर देने पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की शुद्धिरूप आराधना सिद्ध होती है। दोषों को प्रकट
१. मुलाचार, गाथा – १२४ |