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नियमसार-प्राभृतम् चारपूर्वके गुरवे निवेदिते चेति आराधना सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रशुद्धिरनालोचने पुनर्दोषाणामनाविष्करणे पुनर्भाज्याराधना तस्मादालोचयितव्यमिति ।।
____ अथवा 'वियडीकरणं' अस्य स्थाने "विअडीकरण' इति पाठो मन्तव्यस्तहि छायायां विकटीकरणं जायते । तदा दोषाणां विकटीकरणं प्रकटीकरणमाविष्करणमित्यर्थो भवति । आत्मनो मलिनभागमपसार्य तं विमलगुणनिलयं कर्मभ्यो भिन्न शुद्धं भावयेत् । एतमेवार्थमग्रे ग्रन्थकारा गाथायां कथयिष्यन्ति ।
यद्यपि इमे भेदा व्यवहारनयापेक्षया जायन्ते, किं च निश्चयनयस्त्वभेदं गृलाति, तथापि स्वाद चौकुन्दनः निचरनयायलाया एतेषां लक्षणं वक्ष्यन्तिइति ज्ञात्वा येन केनापि प्रकारेण स्वदोषानालोच्य स्वस्मात् निर्मूख्य पृथक्कृत्य निर्मलगुणस्वरूपमात्मानं भावयन्तो शुद्धभावेन स्वगुणा एवं संग्रहणीया भवन्ति भव्यजीवः । ॥१०॥ न करने से पुनः वह आराधना वैकल्पिक है, अर्थात् हो भी, नहीं भी हो, इसलिए आलोचना करनी चाहिए।
अथवा 'वियडीकरणं' इसके स्थान पर 'विअडीकरणं' ऐसा पाठ मानना चाहिये, तो छाया में 'विक्रटीकरण' हो जावेगा। तब दोषों का विकटीकरण, अर्थात् प्रकट करना-आविष्कृत करना, ऐसा अर्थ हो जावेगा। अर्थात् आत्मा से मलिन भाग को दूर करके उस विमल गुणों के स्थानस्वरूप आत्मा को कर्मों से भिन्न शुद्ध भावित करे । इसी अर्थ को आगे ग्नन्थकार गाथा एक सौ ग्यारहवीं में कहेंगे। ..
यद्यपि ये भेद व्यवहारनय की अपेक्षा से होते हैं, क्योंकि निश्चयनय तो अभेद को ग्रहण करता है। फिर भी श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं ही निश्चयनय की अपेक्षा करके इनका लक्षण कहेंगे । ऐसा जानकर जिस किसी भी प्रकार से अपने दोषों की पुनः पुनः आलोचना करके और उन्हें अपने से दूर करके शुद्ध भाव से निर्मल गुणस्वरूप अपनी आत्मा की भावना करते हुए आप भव्य जीवों को सदा अपने गुणों का ही संग्रह करते रहना चाहिये।
भावार्थ--भेद करना व्यवहारनन का काम है और अभेद में ले जाना निश्चयनय का काम है । इसलिये यहाँ पर जो चार भेद हैं, वे भेद को अपेक्षा व्यवहार से होते हुए भी लक्षण की अपेक्षा निश्चयनय से माने गये हैं ।।१०।। १. मूलाचार, अ०७, गाथा-१२४ की टीका । २. गाथा-१११ में।