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अथ परमालोचनाधिकारः
नमोऽस्तु सर्वविघ्न विहन्तुभ्यो व्यवहारनिश्वयालोचनाप्रतिपादन कुशलेभ्यः श्रीश्रषभदेवचरणाब्जचंचरीकवृषभसेनादिचतुरशीतिगणधरदेवेभ्यः ।
अथ
व्यवहारालोचनाविनाभाविषरमालोचनानामधेयः सप्तमोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र षड्गाथासूत्रेषु “जोकम्मकम्मर हियं" इत्यादिना परमालोचनालक्षणम्, तदनु " आलोयण" इत्यादिना आलोचनायाश्चतुर्भेदनिरूपणम्, पुनः "जो परसवि अप्पाणं" इत्यादिचतुःसूत्रैः चतुःप्रकाराणां लक्षणानि -- इति द्वाभ्यामन्तराधिकाराभ्यां समुदायपातनिका सूचिता भवति ।
अधुना वीतरागचारिषादिनामाथि निर्विकल्पध्यानमयं परमालोचनास्वरूपं निरूपयन्त्याचार्यदेवाः-
शोक मकम्मर हियं, विहावगुणपज्ज एहिं वदिरितं । अप्पाणं जो झायदि, समणस्सालोयण होदि ॥ १०७॥
सर्व विघ्नों के विनाशक, व्यवहार निश्चय आलोचना के प्रतिपादन में कुशल श्री ऋषभदेव भगवान् के चरणकमलों के भ्रमरस्वरूप श्री वृषभसेन आदि चौरासी गणधर देवों को नमस्कार होवे ।
अब व्यवहार आलोचना के बिना न होने वाला, ऐसा यह परम आलोचना नामका सातवाँ अधिकार प्रारम्भ किया जा रहा है । इसमें छह गाथासूत्र हैं, उनमें से 'णोकम्मकम्मरहियं' इत्यादि के द्वारा परम आलोचना का लक्षण कहा जायेगा, पुनः " आलोयण" इत्यादि गाथा से आलोचना के चार भेद बताये जायेंगे, इसके बाद "जो परसदि अप्पानं" इत्यादिरूप चार गाथाओं द्वारा चार प्रकार की आलो चना के लक्षण कहेंगे । इस प्रकार दो अंतराधिकारों द्वारा समुदाय पनिका सूचित की गई है ।
अब आचार्यदेव वीतराग चारित्र के साथ अविनाभावी निर्विकल्पध्यानमय परम आलोचना के स्वरूप को कहते हैं—
अन्वयार्थ - ( णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं) नोकर्म-कर्म से रहित और विभाव गुण पर्यायों से व्यतिरिक्त (अप्पाणं जो झायदि) आत्मा को जाते हैं, (समणस्स आलोयणं होदि ) उन भ्रमण के आलोचना होती है ।
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