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मियमसार-प्राभृतम् इदं व्यवहारप्रत्याख्यान षष्ठगुणस्थानेऽस्ति पुनः रत्नत्रयस्यैकाग्रयपरिणतरूपं ध्यानमयं निश्चयप्रत्याख्यानमप्रमत्तादारभ्य आ क्षीणकषायान्तम् । एवमवबुध्याहच्चरणकमलयोः पुनः पुनः मयाऽभ्यर्यते यद्यावज्जीवं सम्यक्त्वस्य संयमस्य च रक्षाऽन्ते च भक्तप्रत्याख्यानविधिना समाधिमरणं मे भूयात् । अश्रुना प्रकृत्तमुपसंहर्तुकामाः पुनरपि प्रत्याख्यानस्य स्वामिनं निगदन्त्याचार्यदेवा :
एवं भेदभासं जो कुम्वइ जीवकम्मणो णिच्वं । पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदु सो संजदो णियमा ।।१०६॥ स्याद्वावधन्द्रिका
एवं जो णिच्चं जीवक्रम्मणो भेदब्भासं कुब्वइ एवं-सकलमंतर्बहिर्जल्पं मुक्त्वा यः परवस्तुभ्यो निर्ममः तपस्थी नित्यमेव ज्ञानदर्शनलक्षणजीवानां पौद्गलिककर्मणां च परस्परं क्षीरनीरमिव संयोगे सत्यपि भेदाभ्यासं करोति । सो संजदो
यह व्यवहार प्रत्याख्यान' छठे गुणस्थान में होता है, पुनः रत्नत्रय की एकाग्न परिणति रूप, ध्यानमय, निश्चय प्रत्याख्यान अप्रमत्त नामक छठे गुणस्थान से लेकर क्षीण कषायपर्यंत होता है। ऐसा जानकर अहंतदेव के चरणकमल में मेरे द्वारा पुनः पुनः यह प्रार्थना की जाती है कि यावज्जीवन मेरे सम्यक्त्व और संयम की रक्षा हो और अंत में भक्तप्रत्याख्यान विधि से समाधि पूर्वक मरण होवे ॥१०५।।
अब प्रकृति के उपसंहार करने के इच्छुक आचार्यदेव पुनरपि प्रत्याख्यान के स्वामी को कहते हैं--
अन्वयार्थ (जो एवं जीवकम्मणो भेदभासं णिच्च कुव्वइ) जो मुनि इस प्रकार जीव और कर्म में भेद का अभ्यास नित्य ही करते रहते हैं (सो संजदो णियमा पच्चक्खाणं धरि, सक्कदि) वे संयमी नियम से प्रत्याख्यान धारण कर सकते हैं।
टीका-इस प्रकार संपूर्ण अंतरंग और बहिरंग जल्प को छोड़कर जो तपस्वी परवस्तु से निर्मम होकर नित्य ही ज्ञानदर्शन लक्षण बाले जीवों में और पौद्गलिक कर्मों में परस्पर में दूध-पानी के समान संयोग होते हुए भी भेद क ।