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नियमसार - प्राभृतम्
श्रीवसुद्याचार्यकृतं लक्षणमत्र प्रदश्यते
१. अनागतं भविष्यत्कालविषयोपवासादिकरणं चतुर्दश्यादिषु यत्कर्तव्यं तत्त्रयोदश्यादिषु यत्क्रियते । २. अतिक्रांत-अतीतकालविषयोपवासादिकरणं चतुर्दश्यादिषु यत्कर्तव्यमुपवासादिकं सत्प्रतिपदादिषु क्रियते । ३. कोटिसहित - संकल्पसमन्वितं शक्त्यपेक्षयोश्वासादिकं श्वस्तने दिनं स्वाध्याय- वेलायामतिक्रांतायां यदि शाक्तर्भविष्यत्युपवासादिकं करिष्यामि नो चेन्न करिष्यामीत्येव यत्क्रियते । ४. निखंडितं अवश्यकर्तव्यं पाक्षिकादिषूपवासकरणम् । ५. साकारं - सभेदं, सर्वतोभद्रकनकायल्याद्युपवासविधिर्नक्षत्राविभेवेन करणम् । ६. अनाकारं - स्वेच्छयोपवासविधिर्नक्षत्रादिकमंतरेणोपयासाविकरणम् । ७. परिमाणागतं - प्रमाणसहितं षष्ठाष्ट
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भेद हैं। श्रीवसुनाद आचार्यकृत टीका में जी उनका लक्षण दिया गया है उन्हें ही यहाँ दिखाते हैं
१ अनागत- भविष्य काल विषयक उपवास आदि करना । जैसे चतुर्दशी आदि में जो करने योग्य है उसे त्रयोदशी आदि में करना सो 'अनागत प्रत्याख्यान' है ।
२ अतीतकाल विषय के उपवास आदि करना जैसे जो चतुर्दशी आदि में करने योग्य उपवास हैं उन्हें प्रतिपदा आदि में करना सो 'अतिक्रांत प्रत्याख्यान' है । ३ संकल्प सहित उपवास 'कोटिसहित प्रत्याख्यान' है, इसमें शक्ति की अपेक्षा से उपवास आदि होते हैं । जैसे, अगले दिन स्वाध्याय का समय निकल जाने के बाद यदि शक्ति होगी तो उपवास आदि करेंगे, नहीं रही तो नहीं करेंगेजिसमें ऐसा नियम रहता है उसे 'कोटिसहित प्रत्याख्यान' कहते हैं ।
४ पाक्षिक आदि में अवश्य करने योग्य उपवास को 'निखंडित प्रत्याख्यान' कहते हैं ।
५ सर्वतोभद्र, कनकावली आदि उपवास विधि तथा नक्षत्र आदि में किये जाने वाले उपवास भेद सहित होते हैं, इन्हें 'साकार प्रत्याख्यान' कहते हैं ।
६ अपनी इच्छा से उपवास विधि करना जिसमें नक्षत्र आदि के बिना उपवास आदि किये जायें- 'अनाकार प्रत्याख्यान' है ।
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