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नियमसार-प्रामृतम् श्रीगुणभद्रसूरिणापि प्रोक्तम्--
आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् |
कस्य किं कियदायाति यूथैव विषयैषिता॥ इत्थं ज्ञात्वा परमसमरसभावो विधातव्यः ॥१०४॥
एवं “मत्ति परिवज्जामि" इत्यादिना ममतापरिणामप्रत्याख्यानमुख्यत्वेन एक सूत्रं गतम्, तदनु "आदा खु मज्म' इत्यादिमात्मन्येव ज्ञानबर्शनचारित्रप्रत्याख्यानादिस्वरूपप्रधानता मान्यत्रेति कथनेन एक सूत्रं गतम्, पुनः "एगो य मरवि जीयो" इत्यादिना एकत्वप्रतिपादनमुख्यत्वेन द्वे सत्रे गते, पुनश्च "ज किचि में दुच्चरित्तं'' इत्यादिना दुष्कृतस्यजनपरमसाम्पभावनाग्रहणप्रतिपादनमुख्यत्वेन द्वे सूत्रे, इति षभिः सूत्रः द्वितीयोऽन्तराधिकारो गतः ।
आशा को लेकर परमवैराग्य भाव से परिणत होता हुआ पर वस्तुओं की आशा को छोड़ता हूँ।
श्रीगुणभद्रसूरि ने भी कहा है
“यह प्रत्येक प्राणी आशारूपो गड्ढे में पड़ा हुआ है, जिसमें यह विश्व अणु के समान दिखता है। अतः किसको क्या और कितना मिलेगा ? इसलिये विषयों की आशा व्यर्थ ही है ।'
ऐसा जानकर परमसमरसभाव रखना चाहिये ।।१०४॥
इस तरह "मत्ति परिवज्जामि" इत्यादि रूप से ममताभाव के त्याग को मुख्यता से एक सूत्र हुआ, इसके बाद “आदा खु मज्झ'' इत्यादि रूप से आत्मा में हो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान आदि की प्रधानता है अन्यत्र नहीं, इस कथनपूर्वक एक सूत्र हुआ । पुनः “एगो य मरदि जोवो' इत्यादि रूप से एकत्व के प्रतिपादन की मुख्यता से दो सूत्र हुए, 'जं किंचि मे दुचरित्तं' इत्यादि रूप से दुष्कृत को छोड़ने और परमसाम्यभावना को नहण करने के प्रतिपादन की मुख्यता से दो सूत्र हुए, इस प्रकार छह सूत्रों द्वारा यह दूसरा अन्तराधिकार पूर्ण हुआ ।
१. आत्मानुशासन, बलोक ३६ ।