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नियमसार - प्राभृतम्
स्याद्वादचन्द्रिका --
मे अप्पा एगो सासदो - ममात्मा एकः शाश्वतोऽविनश्वरः पर्यायार्थिकनयेन जन्ममरणं कृत्वापि द्रव्यार्थिकनयेन नित्यः । णाणदंसणलक्खणी-ज्ञानदर्शने एव लक्षणं यस्यासौ ज्ञानदर्शनलक्षणः । संजोगलक्खणा सेसा सब्वे भावा मे बाहिरा - यथा जलस्य शीतस्वभावोऽपि अग्निसंयोगेन उष्णो भवति, तथैव संयोग: पुद्गल संपर्क एव लक्षणं एषामिति संयोगलक्षणा आत्मानमंतरेण शेषा भावाः मे पदार्था बाह्या एव । श्री कुंदकुंददेवैरियं गाथा समयसारमूलाचारादिग्रन्थेऽपि गृहीतास्ति, तद् आत्मशरीरयोभेदभावनादृढीकरणर्थाम् तेषामधिका रुचिर्वृश्यते ।
उक्तं च श्रीपनंविसूरिणा --
समाधिः परः, safeत्राचलः ।
भवज्ञान विशेष संहृतमनोवृत्तिः जायेताद्भुतधामघन्यशमिनां ater पतत्यपि त्रिभुवने वह्निप्रीतेऽपि वा येषां नो विकृतिर्मनागपि भवेत् प्राणेषु नश्यत्स्वपि ॥ "
टीका- मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है--अविनश्वर है। पर्यायार्थिक नय से जन्म-मरण करके भी द्रव्यार्थिकनय से नित्य है । ज्ञान और दर्शन ही इसके लक्षण हैं। जैसे जल का स्वभाव शीतल होते हुए भी अग्नि के संयोग से उष्ण हो जाता है, उसी प्रकार से संयोग -- पुद्गल का संपर्क ही हे लक्षण जिनका ऐसे आत्मा से अतिरिक्त सभी पदार्थ मेरे बाह्य ही हैं ।
श्री कुन्दकुन्ददेव ने इस गाथा को लिया है। इससे आत्मा और शरीर की अत्यधिक रुचि दिख रही है ।
समयसार, मूलाचार 'भेदभावना' को दृढ़
आदि ग्रंथों में भी करने में उनकी
श्रीपद्मनंदि आचार्य ने भी कहा है-
" जिसमें भेदज्ञान विशेष के द्वारा मन का व्यापार रुक जाता है, ऐसी उत्कृष्ट समाधि या श्रेष्ठ ध्यान आश्चर्यजनक आत्मतेज को धारण करनेवाले किन्हीं विरले ही महामुनियों को होता है, कि जहाँ पर शिर के ऊपर वज्र गिरने पर भी अथवा तीनों लोकों में अग्नि के प्रज्ज्वलित हो जाने पर भी, अथवा प्राणों के नष्ट हो जाने पर भी, जिनके चित्त में किंचित् मात्र भी विकृति- चंचलता नहीं आती है । अभिप्राय यही है कि ऐसी निश्चलता भेदविज्ञान के होने पर ही हो सकती है ।"
१. पद्म नदिपंचविंशतिका, यतिभावनाष्टक |