________________
नियमसार - प्राभृतम्
२९१
एव कर्मरजोभ्यो निर्गतो नीरजाः भूत्वा सिद्धयति सिद्धपरमात्मा भवति । अयं जीव: स्वयमेव चतुर्गतिसंसारे पदस्य सति ।
उक्तः श्रीचन्द्रप्रभस्तुतौ---
शरीरी प्रत्येकं भवति भुवि वेधाः स्वकृतितः, विधत्ते नानाभूपवनजल ह्निनुमतनुम् । सो भूत्वा भूत्वा कथमपि विधायात्र कुशलम्, स्वयं स्वस्मिन्नास्ते भवति कृतकृत्यः शिवमयः ॥ '
इत्थमवबुध्य सुखदुःखप्रसंगे परस्य दोषमनारोप्य स्वस्यात्मनः कर्मरजोहरणाय पुरुषार्थः कर्तव्यः ॥ १०१ ॥
आरमाऽयं जन्ममरणं कृत्याप्यजरामरोऽस्तीति दृढीकरणार्थमात्मनो लक्षणं लक्षयन्त्याचार्याः
एगो मे सासदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १०२ ॥
है । पुनः अकेला ही कर्मरज से रहित नीरज होकर सिद्ध परमात्मा हो जाता है । यह जीव स्वयं ही चतुर्गति संसार में घूमता हुआ अपनी सृष्टि का बनाने वाला होता है । चन्द्रप्रभस्तुति में कहा भी है-
" प्रत्येक शरीरधारी प्राणी इस संसार में स्वयं अपने कर्मों से अपना विधाता होता है । यह अनेक प्रकार के पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति के शरीर को धारण करता रहता है । कभी त्रस हो-होकर बड़ी मुश्किल से ही अपने में स्थित हो जाता है, तब यह शिवस्वरूप होकर जाता है।'
कुछ पुण्य करके स्वयं कृतकृत्य भगवान् हो
〃
ऐसा जानकर सुख-दुःख के प्रसंग में पर के ऊपर दोष आरोपित न करके अपनी आत्मा के कर्मरज को दूर करने के लिये पुरुषार्थं करना चाहिये ॥१०१॥ यह आत्मा जन्म-मरण करके भी अजर अमर है-ऐसी बात दृढ़ करने के लिये आचार्यदेव आत्मा का लक्षण कहते हैं
अन्वयार्थ - - ( मे अप्पा एगो सासदो) मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है, ( णाणदंसणलक्खणी) और ज्ञान दर्शन लक्षणवाला है। (सेसा संजोगलक्खणा स भावा मे बाहिरा ) शेष संयोग लक्षणवाले सभी भाव मेरे से बाह्य हैं ।
१. चन्द्रप्रभस्तुति — 'जिनस्तवनमाला' ।
२. यह गाथा समयसार और मूलाधार में भी है।