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नियमसार-प्राभूतम्
२८१ मदिरेव विभ्रमोत्पादकमोहनीयकर्मणः प्रलयात् परमालावमयकेवलाव्याबावसुखस्वभावः । केवलसत्तिसहावो-सर्थभोगोपभोगदानलाभशक्तिषु विधमकरान्तरायकर्मणः प्रक्षयात् केवलासहायाप्रतिहतानंतवीर्यस्वभावोऽस्ति सो हं-व्यवहारनयापेक्षयानाविकर्मसंतत्या संतप्यमानोऽपि निश्चयनयेन यः कोऽपि अनंतचतुष्टयमय आत्मा स एवाहम् । इदि णाणी चितए-इति ज्ञानी यथाजातरूपधारो मुनिः चितयेत्, षष्ठगुणस्थाने भावनां कुर्यात्, सप्तमादिगुणस्थानेष ध्यानपरिणतो एकानचितानिरोधलक्षणेकतानपरिणति च विवध्यात् ।
तथाहि-केवलज्ञानस्वभावोऽहं, केवलदर्शनस्वभावोऽहं, केवलसौख्यस्थभावोऽहं. केवलवीर्यस्नानागोई, अनंतम्तष्टव्यमयो यः कश्चित कार्यपरमात्मा स एवाहमिति चित्तस्वस्थकरणार्य सम्यग्दृष्टिरपि भावयेत् । पुनः स्वस्यानंतचतुष्टयस्वभावव्यक्त्यर्थं जिनमत्रांकितो भूत्वा घात्यघातिकर्मोदयसत्त्वनिहरणाय व्यकर्मणां प्रत्याख्यानं कुर्याविति तात्पर्यमत्र ज्ञातव्यम् ॥९६॥ दर्शनस्वभावी है, मदिरा के समान भ्रम को उत्पन्न करनेवाला जो मोहनीय कर्म है, उसका प्रलय हो जाने से जो आत्मा परमालादमय केवल अव्याबाध सुखस्वभावी है, तथा सर्वभोग, उपभोग, दान, लाभ और शक्ति में विघ्न करने वाले ऐसे अंतराय कर्म का क्षय हो जाने से जो आत्मा केवल असहाय, अप्रतिहत, अनंतवीर्य स्वभावी है, सो ही मैं हूँ। व्यवहारनय की अपेक्षा अनादि कर्मसंतति से संतप्त होते हुये भी निश्चयनय से जो कोई भी अनंतचतुष्टयमय आत्मा है, सो ही मैं हूँ।
इस प्रकार यथाजातरूपधारी ज्ञानी मुनि चितवन करे, छठे गुणस्थान में भावना करे और सातवें आदि गुणस्थानों में ध्यान की परिणति में एक विषय पर मन को रोकनेरूप, एकाग्रतारूप ध्यान को करे ।
उसी को कहते हैं__ में केवलज्ञानस्वभावी हूँ, मैं केवलदर्शनस्वभावी हूँ, मैं केवलसौख्यस्वभावी हूँ, मैं केवल वीर्यस्वभावी हूँ--इस प्रकार "अनंतचतुष्टयमयो जो कोई कार्यपरमात्मा है सो ही मैं हूँ।" सम्यग्दृष्टि भी अपने चित्त को स्वस्थ करने के लिये ऐसी भावना भाता रहे । पुन: अपने अनंतचतुष्टय स्वभाव को प्रकट करने के लिये जिनमुद्रा को धारण कर धाति-अघाति कर्मों के उदय और सत्त्व को दूर करने के लिये द्रव्यकर्मों का प्रत्याख्यान करे-यहाँ ऐसा तात्पर्य समझना चाहिये ॥१६॥