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नियमसार - प्राभृतम्
पुनरपि सोहं शब्दस्यार्थं प्रदर्शयन्त्याचार्यवर्याः
णियभावं ण वि मुंचइ, परभावं णेव गेण्हए केई । जादि पस्सदि सव्वं, सोहं इदि चिंतए णाणी ॥ ९७ ॥ स्याद्वावचन्द्रिका -
यिभावं ण वि मुचइ - यो मयूरपिच्छिकाधारी यतिः निःसंगो भूत्वा वीतरागस्त्रसंवेदनज्ञानरूपे स्वस्वरूप आचरन सन् निजज्ञानदर्शनभावाद्यनंतगुणसमूहं कदाचिदपि न मुंचति, केई परभावं णेव गेव्हए - क्रोधमान माया लोभरागद्वेषाविविभावभावान् कानपि नैय गृह्णाति । सव्वं जाणदि पस्सदि सर्वं स्वपरस्वभावं कवलं जानाति पश्यति च केवल ज्ञाता ब्रह्मा भवति, परमात्मनः स्वभावोऽयम् । यद्यपि एषां भावानामुपादानकारणमात्मा एव, तथापि ब्रव्यकर्मोदयनिमित्तेन जन्यत्वादिमे परभावा एव । ननु तस्य व्यतिरिक्तो कश्चिदीदृशो भवति किम् ? अथ कि, सो हं- स एवाहं अथवा तत्समोऽहम् । कथमेतत् संभवेत् ? शुद्धनयेनैव न चाशुद्धनयेन ।
पुनरपि आचार्यवर्य 'सोहं' इस शब्द का अर्थ दिखलाते हैं
अन्वयार्थ - (जियभावं ण वि मुंबई ) जो अपने निज भावों को नहीं छोड़ते हैं । ( केई परभाव णेव गेव्हए) और किन्हीं भी परभावों को ग्रहण नहीं करते हैं, ( सव्वं जाणदि पस्सदि ) मात्र सब को जानते देखते हैं, (सोहं इदि णाणी चितइ) सो ही मैं हूँ, इस प्रकार से ज्ञानी चितवन करे ।
टीका -- जो मयूरपिच्छिकाधारी दिगंबर मुनि निःसंग होकर वीतरागस्वसंवेदन ज्ञानरूप निजस्वरूप में आचरण करते हुये निज ज्ञानदर्शन भाव आदि अनंतगुण समूह को कभी भी नहीं छोड़ते हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि किन्हीं भी विभाव भावों को ग्रहण नहीं करते हैं, जो सभी स्व और पर के स्वभाव को केवल जानते और देखते हैं, अर्थात् मात्र सबके ज्ञाता और द्रष्टा ही रहते हैं । यहाँ पर यह परमात्मा का स्वभाव बताया गया है । यद्यपि राग द्वेष आदि भावों का उपादान कारण आत्मा ही है, फिर भी द्रव्य कर्मोदय के निमित्त से ये भाव उत्पन्न होते हैं अतः ये परभाव ही हैं ।
शंका- - क्या इन परमात्मा के सिवाय भी अन्य कोई ऐसे होते हैं ? समाधान -- हाँ, सो ही मैं हूँ, अथवा उन परमात्मा के समान ही मैं हूँ । शंका - - यह कैसे संभव है ?