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नियमसार-प्राभृतम्
२८५ स्वस्यात्मानं पृथग्भावयन् सन् वीतरागो भूत्वा स्वात्मनि स्थिरत्व कुर्वाणः प्रागुपयोगात् कर्मभ्यः स्वं पृथक्करोति पश्चात् शुक्लध्यानबलेन साक्षात् पृथक्कृत्य स्वतंत्रो भूस्था त्रैलोक्याग्र भागं गत्वा सिद्धपरमात्मा शाश्वतकालं तत्रैव विराजते।।
तात्पर्यमेतत्-द्रव्यकर्मप्रत्याख्यानं कर्तुमुपायोऽयं प्रदशितो भव्यानामिति ज्ञात्वा सदैव भावना कर्तव्या भवति । तथाहि
अनंतज्ञानदर्शनादिनिजभाषसमन्वितः रागद्वेषादिपरभावशून्यप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रवेशबंधरहितः, कर्मोदयसत्त्वद्रव्यकर्मभावकर्मनोकर्मरहितः, सिद्धोऽहम् ।
इति भावनया रागद्वेषादिभावस्य ह्रास आत्मनि स्थिरत्वं च जायते ॥९८॥
एवं "मोत्तूण सयलजप्पं" इत्यादिना निश्चयप्रत्याख्यानस्य सामान्यलक्षणसूचकत्वेन एक सूत्रं गतम्, तदनु "केवलणाणसहायो'' इत्यादिना आत्मनः स्वभावप्रधानत्वेन एफ सूत्रं गतम्, ततः "णियभावं ण वि मुंबई" इत्यादिना रागादिभा
सरागसंयमी मुनि द्रव्यकर्म के बंध, उदय और सत्व से अपनी आत्मा को पृथक् भाते हुये वीतरागी होकर अपनी आत्मा में स्थिरता करते हुए पहले उपयोग में कर्मों से अपने को पृथक् करते हैं, पश्चात् शुक्लध्यान के बल से उन्हें साक्षात पृथक् करके स्वतंत्र होकर, तीन लोक के अग्रभाग पर जाकर सिद्ध परमात्मा के रूप में शाश्वतकाल वहीं पर विराजमान रहते हैं।
___ तात्पर्य यह है कि द्रव्यकर्म को छोड़ने का भव्यों को यह उपाय दिखाया गया है ऐसा जानकर सदा ही आपको भावना करनी चाहिये ।
मैं अनंतज्ञानदर्शन आदि निज भावों से समन्वित, रागद्वेषादि पर भावों से शून्य, प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेश बंध से रहित, कर्म के उदय और सत्त्व से रहित, द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म से रहित हूँ। मैं सिद्ध हूँ।
इस प्रकार की भावना से राग-द्वेषादि भावों का ह्रास होता है और आत्मा में स्थिरता हो जाती है ॥९८।
इस तरह "मोत्तूण सयलजप्पं' इत्यादिरूप से निश्चयप्रत्याख्यान के सामान्य लक्षण को सूचित करते हुए एक सूत्र हुआ, इसके बाद "केवलणाणसहावो" इत्यादिरूप से आत्मा के स्वरूप को प्रधानता बतलाते हुए एक सूत्र हुआ, इसके बाद