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नियमसार-प्रांभृतम वाना प्रत्याख्यानसूचकत्वेन एक सूत्रं गतम् । पुनः “पडिदि'' इत्याविना अध्यकर्मप्रत्याख्यानकथनमुख्यत्वेन एक सूत्रं गतम् । इति चतुर्भिः सूत्रैः प्रथमोऽन्तराधिकारो गतः । अधुनाहं कि करोमीति प्रश्ने सति प्रत्युत्तरं प्रयच्छन्त्याचार्या:
ममत्ति परिवज्जामि णिममति उवविदो।
आलंबणं च मे आदा, अवसेसं च वोस्सरे॥९९॥' स्याद्वादचन्द्रिका --
ममत्ति परिवज्जामि-'बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात्'—इति ज्ञात्वा संसारशरीरभोगेभ्यो ममत्वं परिधर्जयामि । णिममत्ति उवट्ठिदो-पुनः निर्ममत्वं उपस्थितोऽस्मि बाह्यपदार्थेभ्यो निर्ममो भन्वा शुद्धबुद्धनित्यनिरंजननिर्विकल्पपरमानवस्वरूपे निजात्मनि ममत्वं विधामि । किंचायं जीवः अनादिकालात स्वात्मनो निर्ममो भूत्वा शरीरधनकुटुम्बाविपरवस्तुनि ममत्वं करोति । एतद्विपरीताभिप्रायमेव मिथ्यात्वं यत् जन्मजरामरणरोगशोकादिदुःखकारणमेव । तहि कि कर्तव्यं ? मे आदा "णियभावं ण वि मुंचइ'' इत्यादिरूप से रागादि भावों के त्याग का सूचक एक सूत्र हुआ, पुनः “पडिछिदि" इत्यादि रूप से द्रव्यकर्म के त्याग को कहने की मुख्यता से एक सूत्र हुआ है । इस प्रकार चार सूत्रों से यह पहला अंतराधिकार पूर्ण हुआ है। __ इस समय मैं क्या करूँ ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्यदेव उत्तर देते हैं
अन्वयार्थ-ममत्ति परिवज्जामि) ममत्व भाव को छोड़ता हूँ, (णि ममत्ति उबट्ठिदो) वे निर्ममत्व को प्राप्त करता हूँ, (मे च आदा आलंबणं) मेरी आत्मा ही आलंबन है । (अवसेसं च बोस्सरे) में आत्मा से अतिरिक्त सभी का त्याग करता हूँ।
भावार्थ--'ममतासहित जीव बंधता है और ममतारहित जीव मुक्त होता है।' ऐसा जानकर मैं संसार शरीर और भोगों से ममत्व को छोड़ता है। पुन: बाह्य पदार्थों से निर्मम होकर शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन, निर्विकल्प, परमानंदस्वरूप अपनी आत्मा में ममत्व करता हूँ।
क्योंकि अनादिकाल से यह जोव अपनी आत्मा से निर्मम होकर शरीर, धन, कुटुम्ब आदि पर वस्तु में ममत्व कर रहा है, यह 'विपरीत अभिप्राय' ही मिथ्यात्व है, जो कि जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि दुःखों का कारण है। १. यह गाया मूलाधार में अध्याय २ में भी है।