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नियमसार-प्राभृतम् षक्रियासु सावधानतया प्रवर्तमानेन त्वया निश्चयप्रत्याल्यानं कदा मे भवेदित्थं भावना कर्तव्या ॥९॥ 'सोऽहं शब्दस्या स्पष्टअन्त्याचार्यदेवाः
केवलणाणसहावो, केवलदसणसहाव सुहमइओ।
केवलसत्तिसहावो, सोहं इदि चितए गाणी ॥९६॥ स्याद्वादचन्द्रिका
केवलणाणसहाबो-यः कश्चिदात्मा रज इव ज्ञानगुणप्रच्छादकज्ञानावरमकर्मणः सर्वथा संक्षयात् केवलज्ञानस्वभावोऽस्ति । केवलदसणसहाव-रज इवात्मनो वर्शनगुणाच्छावकदर्शनावरणकर्मणो विलयात् केवलदर्शनस्वभावोऽस्ति । सुहमइओ--
'निश्चय प्रत्याख्यान' होता है । ऐसा जानकर आपको अपनी छह आवश्यक क्रियाओं में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करते हुये "निश्चय-प्रत्याख्यान मुझे कब प्राप्त होगा ?" सतत ऐसी भावना करते रहना चाहिये ।।
भावार्थ-उज्जयिनी नगरी में एक 'चंड' नाम का मातंग रहता था । एक दिन बह चर्म को रस्सी बट रहा था, जब कि उसकी आयु पूर्ण होने में थोड़ा सा हो समय बाकी रह गया था। यह बात एक ऋषिराज को मालूम हुई । तब उन्होंने उसे मांस त्याग का व्रत दे दिया। उस मातंग ने "यह मेरी चर्म की रस्सी का बटना जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक के लिये मेरे मांस का त्याग है।" ऐसा वत लिया । भवितव्यतानुसार रस्सी बटना पूर्ण होने के पहले ही उसका मरण हो गया। अत: उस व्रत के प्रसाद से वह यक्षेन्द्र हो गया । इसलिये प्रत्याख्यान तत्क्षण ही ग्रहण कर लेना चाहिये, क्योंकि आयु का कोई भरोसा नहीं रहता ।।९५॥
अब "सोऽहं" शब्द के अर्थ को आचार्यदेव स्पष्ट करते हैं--
अन्वयार्थ--(केवलणाणसहावो केवलदसणसहाव सुहमइओ केवलसत्तिसहावो) जो केवलज्ञानस्वभाव है, केवलदर्शनस्वभाव है, केवल सुखमय है और कंवलवीर्यस्वभाव है, (सोह) सो हो मैं हूँ, (इदि णाणी चितए) ऐसा ज्ञानी चितवन करे ।
टीका-जो कोई आत्मा रज के समान ज्ञानगुण के प्रच्छादक ज्ञानाबरण कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से केवल ज्ञानस्वभावी है। रज के समान ही दर्शनगुण को ढकने वाला जो दर्शनावरण कर्म है, उसके नष्ट हो जाने से जो आत्मा केवल