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नियमसार-श्रभूतम्
स्याद्वादचन्द्रिका
सयलजप्पं मोत्तूण - सर्वमनोवचनगतमन्तर्बहिर्जल्पं मुक्त्वा । अणागयसुहमसुहवारणं किच्चा - अनागतं भाविकाल संबंधि शुभाशुभपरिणामानां सुखदुःख फलजनकपुण्यपापबंधकारणभूतानां निवारणं कृत्वा । जो अप्पाणं झायदि-यो नंदीश्वर पंक्तिनिष्क्रीडितादितानि कुर्वन् तपस्वी साधुः स्वात्मानं घ्यायति । तस्स पच्चक्खाणं हवे- स्वव्यवहारमत्याच्याशासंभव प्रियप्रत्याख्यानं भवेत् सिद्धयेत् । - प्रत्याख्यायको संयमी मुनिः प्रत्याख्यानं परित्यागपरिणामः, प्रत्याख्यात द्रव्यं सचिसाचित्तमिश्रकं सावयमभक्ष्याविवस्तु निरवद्यं तपोनिमित्तं लवणघृतादि वा । अथवा बिनं दिनं प्रति आहारं कृत्वा तदनु चतुविधाहारत्यागोऽपि प्रत्याख्यानम् । उक्तं च-
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तबथा
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सिद्धभक्त्योपवासश्च प्रत्याख्यानं च मुख्यते । लघ्व्यैय भोजनस्याचौ भोजनान्ते च गृह्यते ॥ सिद्धयोगिलघुभक्त्या प्रत्याख्यानादि गृह्यते । लव्या तु सूरिभवस्यैव सूरिवंधोऽय साधुना ॥ "
टीका - सम्पूर्ण मनसंबंधी अंतर्जल्प और वचनसंबंधी बाह्य जल्प को छोड़कर, तथा सुख-दुःखफल को उत्पन्न करने वाले जो पुण्य-पाप कर्म हैं, उनके बंध के लिये कारण ऐसे भावी काल में होने वाले शुभ-अशुभ परिणामों का भी निवारण करके जो नंदीश्वरपंक्ति, सिंहनिष्क्रीडित आदि व्रतों को करते हुये तपस्वी साधु अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, उनके व्यवहार- प्रत्याख्यान के विना न होने वाला ऐसा 'निश्चय प्रत्याख्यान' सिद्ध होता है ।
उसी को कहते हैं
प्रत्याख्यान करने वाला संयमी मुनि है, त्यागरूप परिणाम प्रत्याख्यान है । तथा सचित्त-अचित्त द्रव्य और मिश्र द्रव्य प्रत्याख्यान के योग्य पदार्थ हैं । अथवा अभक्ष्य आदि वस्तु सावद्य-सदोष हैं और तपश्चर्या के लिये त्यागी गयी नमक, घी आदि वस्तुयें निर्दोष हैं, ये भी प्रत्याख्यान के योग्य माने गये हैं । अथवा प्रतिदिन आहार के बाद चार प्रकार के आहार का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है । कहा भी हैजब साधु नवधा भक्ति के बाद आहार शुरू करते हैं, तब लघुसिद्ध भक्ति १. अनगारधर्मामृत, अ० ५ श्लोक ३७ की टीका से ।
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