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नियमसार-प्राभृतम् प्रतिक्रमणनिष्णातसाधुभिनिश्चयनयप्रघानं कृत्वा श्रीगणधरदेवकथितसर्वसूत्रेषु एवमेव पठित्वा परमार्थप्रतिक्रमणभावना भावनीया भवति । तद्यथा
'प्राणातिपातं त्यक्त्या यः साधुरभयदानं करोति, स प्रतिक्रमणमुच्यते, प्रतिक्रमणमयो भवेत् यस्मात् । मषाभावं त्यक्त्वा यः सत्यं वदति, स प्रतिक्रमणमुच्यते, प्रतिक्रमणमयो भवेद् यस्मात् ।'
तात्पर्यमेतत्-अस्मिन् प्रतिक्रमणाधिकारे प्रतिक्रमणसूत्राधारेण श्रीकुन्दकुन्दवेवैः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं विकमात्रं । दशितम् अत्र सूत्रोक्तं सर्वमपि भावयित्वा निर्विकल्पध्यानमेवाश्रयणीयं पति मुगुणाम् ।
अस्मिन् संयतिकापर्याये--"पडिक्कमामि भंते ! एक्के भावे अणाचारे" इत्यादिना तस्मिन् दोषे संजाते "मिच्छा मे बुक्कड" इति प्रतिक्रमणसूत्रोच्चारणं कारंकारं कृतदोषा मम मिथ्या भवेयुः। अंते समाधिमरणं तृतीयभवे निश्चयप्रतिक्रमण
पढ़ते हैं, वे उस समय बहुत सी कर्मनिर्जरा के लिए प्रवृत्त होते हैं ।'
प्रतिक्रमण में निष्णात साधुओं को निश्चयनय की प्रधानता करके श्री गणधरदेव कथित सर्व सूत्रों में इसी-पूर्व कथित प्रकार से पढ़कर परमार्थ प्रति. क्रमण की भावना भाते करना चाहिये। इसे हो स्पष्ट करते हैं
जो साधु जीवहिंसा को छोड़कर अभयदान करते हैं, वे प्रतिक्रमण' कहलाते हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हैं । जो साधु असत्यवचन को छोड़कर सत्य बोलते हैं, वे 'प्रतिक्रमण' कहलाते हैं, क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं ।
तात्पर्य यह है कि इस प्रतिक्रमण अधिकार में प्रतिक्रमण सूत्रों के आधार से श्री कुंदकुन्ददेव ने निश्चयप्रतिक्रमण का स्वरूप किंचिन्मात्र दिखलाया है । यहाँ यहाँ पर उन सूत्र-कथित सभी को भावित करके मुमुक्षुओं को निर्विकल्प ध्यान का हो आश्रय लेना योग्य है ॥९४॥
__इस संयतिका (आयिका) पर्याय में "हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करती हूँ, उसमें एक भाब अनाचार है", "उसमें जो दोष लगा हो सो मेरा मिथ्या हो।" इस प्रकार प्रतिक्रमण सूत्रों का उच्चारण कर करके मेरे द्वारा जो भी दोष हुये होंगे दे मिथ्या हो जावें, मुझे अंत में समाधिमरण की प्राप्ति हो और तृतीय भव में निश्चयप्रतिक्रमण को भी संप्राप्ति होवें, इस प्रकार मेरे द्वारा पुनः पुनः याचना की