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नियमसार-प्राभूतम्
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स्यावावचन्द्रिका.....
पडिकमणणामधेये सुत्ते जह पडिक्कमणं वण्णिदं श्रोवर्धमानजिनेश्वराणां प्रथमगणधरदेवा: श्रीगौतमस्वामिनः सप्र्ताद्धसमन्विता मन:पर्ययज्ञानिनस्तैः "इच्छामि भंते ! दिवसियम्हि आलोचेदं, तत्थ पढमं महत्व" इत्यादिना वैधसिकरात्रिकप्रति. क्रमणसूत्रं प्रोक्तं, तथैव “णमो जिणाणं" इत्यादिमंगलसूत्रमंगलं कृत्वा "सुवं मे आउस्संतो"' इत्यादिना बृहत्प्रतिक्रमणं च प्रोक्तमस्मिन् बृहत्प्रतिक्रमणे पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकसर्वातिचारोत्तमार्थप्रतिक्रमणानि अंतर्भवन्ति । श्रीगौतमस्वामिमुखकमलविनिर्गते प्रतिक्रमणनामधेये सूत्रे यथाविधिः प्रतिक्रमणक्रिया यणिताऽस्ति । तह णच्चा जो भावइ-तथाविधि ज्ञात्वा यो मुनिरायिका था भावयति प्रतिक्रमणसूत्राणि समय समय परमादरात् पठति शृणोति वा । तस्स तदा पडिक मणं होदिसस्य मुनेराधिकायाश्च तदाकाले प्रतिक्रमणं भवति । उक्तं च मलाचारे--
भावेण संपजुत्तो जदत्यजोगो य जंपदे सुसं।
सो कम्मणिज्जराए विजलाए बट्टदे साधू ॥ टीका-श्री वर्धमान तीर्थकर के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी हये हैं, ये सात ऋद्धि से समन्वित और मनःपर्ययज्ञानी थे। इन्होंने "हे भगवन् ! मैं देवसिक प्रतिकमण में आलोचना करने की इच्छा करता हूँ। उसमें प्रथम महावत"....." इत्यादि रूप से दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण सूत्र कहे हैं। उसी प्रकार से "सर्व जिनों को नमस्कार हो" इत्यादि मंगलसूत्रों द्वारा मंगलाचरण करके "हे आयुष्मन्तों। मैंने सुना है" इत्यादिरूप बृहत्प्रतिक्रमण कहा है। इस बृहत्प्रतिक्रमण में पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, सार्वातिचारिक और उत्तमार्थ प्रतिक्रमण अंतर्भूत हैं। अर्थात् पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि के अवसर पर यही प्रतिक्रमण किया जाता है ।
___ श्री गौतमस्वामी के मुखकमल से निकले हुये इन "प्रतिक्रमण" नाम के सूत्रों में विधिवत् प्रतिक्रमण क्रिया वणित की गई है । उस विधि को समझकर जो मुनिराज और आयिकायें उसकी भावना करते हैं---उन प्रतिक्रमण सूत्रों को यथासमय परमादर से पढ़ते अथवा सुनते हैं, उन मुनि और आयिकाओं का उस काल में प्रतिक्रमण होता है।
मूलाचार में भी कहा है
'जो मुनि भाव से उपयोग लगाकर जिस प्रयोजन के लिये प्रतिक्रमण सूत्र १. पाक्षिक प्रतिमण । २. मुलाचार अधिकार ७ ।
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