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नियमसार-भाभृतम् लुचप्रतिक्रमणा, रात्रिकप्रतिक्रमणा, देवसिकप्रतिक्रमणा, गोचारप्रतिक्रमणा, निषिविकागमनप्रतिक्रमणा, ईर्यापथप्रतिक्रमणा अतीचारप्रतिक्रमणा चेति ।
तत्र निषिद्धिकागमनप्रतिक्रमणा, ईपियप्रतिक्रमणायाम्, लुम्चगोचरप्रतिक्रमणे वैवसिक्याम, अतीचारप्रतिक्रमणा रात्रिषयां चान्तर्भवन्ति ।
अतः पूर्वकथितदेवसिकरात्रिकर्यापथपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकोत्तमाथिकनामधेयाः सप्तैव प्रमुखा वर्तन्ते ।
____ एवं पञ्चवर्षान्ते कर्तव्या युगप्रतिक्रमणनामधेयापि सांवत्सरप्रतिक्रमणायां
वर्तते।
उक्तं चानगारधर्मामृतग्रन्थे--- "तथा पंचसंवत्सरान्से विधेया योगान्ती प्रतिक्रमणा संवत्सरप्रतिक्रमायामन्तर्भवति ।"
प्रतिक्रामति कृतदोषादविरमतीति प्रतिक्रामकः साधुः। पंचमहावतादि. श्रवणधारणदोषनिहरणतत्परः प्रतिक्रमणं, पंचमहावतायतीचारविरति-तशुद्धिनिमित्ता
लोचप्रतिक्रमण, रात्रिकप्रतिक्रमण, देवसिकप्रतिक्रमण, गोचारप्रतिक्रमण, निषिद्धिकागमनप्रतिक्रमण, ईर्यापथप्रतिक्रमण और अतिचारप्रतिक्रमण--ये सात लघु प्रतिक्रमण हैं। इनमें से निषिद्धिकागमन प्रतिक्रमण 'ईपिथ' में अंतर्भत माना गया है। लोच और गोचार-प्रतिक्रमण देवसिक में गर्भित हैं और अतिचार-प्रतिक्रमण राधिक में गभित हो जाता है । इस तरह ईर्यापथ, दैवंसिक और रात्रिक--ये तीन ही रह जाते हैं । ऊपर कहे गये बड़े प्रतिक्रमण चार और वे तीन-इन्हें मिलाकर सात प्रतिक्रमण ही प्रमुख हैं।
अतः पूर्व में कहे गये देवसिक, रात्रिक, ईर्यापथ, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ--ये सात प्रतिक्रमण प्रमुख रहते हैं।
ऐसे ही पाँच वर्ष में करने योग्य जो युग-प्रतिक्रमण है, वह भी वार्षिकप्रतिक्रमण में गभित कर लिया जाता है । अनगारधर्मामृत में भी यही कहा है---
"तथा पांच वर्ष के अन्त में किया गया युगप्रतिक्रमण, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में अन्तर्भूत हो जाता है ।" जो प्रतिक्रमण करते हैं, किये गये दोष से विरत होते हैं, वे साधु प्रतिक्रामक कहलाते हैं, जो पाँच महाव्रत आदि व्रतों के सुनने, धारण करने और उनमें लगे हुए दोषों को दूर करने में तत्पर रहते हैं । पांच महा१. अनगारधर्मामृत अध्याय ८, श्लोक ५८ की टीका !