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नियमसार-प्राभृतम् अनेन एतज्ज्ञायते संयमतपःसुस्थितानां निर्ग्रन्थमहर्षिणां कृते एषा प्रतिक्रमणक्रिया तीर्थंकरमहादेवाधिदेवैः प्रज्ञप्ता, न च सामान्यमुनिना।
एतत्प्रतिक्रमणं प्रमत्तसंयतमुनीनामेव, अनेऽप्रमत्तसंयतगुणस्थानादारभ्य क्षीणकषायगुणस्थानपर्यन्तमुनीनां निश्चयप्रतिक्रमणं तरतमभावेन वर्तते । फेवलिनां भगवतां तु अस्य फलमेव । असंयतदेशसंयत्तयोरुभयप्रतिक्रमणस्य वार्ताऽपि नास्ति, तत्र श्रावकेषु मुनोना पड़ावश्यकक्रियायाः अभावात् । श्रावकाणां अन्या एवं क्रियाः श्रूयन्ते । तथाहि--
देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने ।' तात्पर्यमेतत्-प्रतिक्रमणवण्डकोच्चारणक्रियाबलेन साधनेन ध्यानरूपं निश्चयप्रतिक्रमण साध्यं कर्तव्यम् । यावदीदेशी शक्तिर्न लभ्येत, तावत् बचनोच्चारणरूपं द्रव्यप्रतिक्रमणं सुष्ठ्तया कर्तव्यम् ।।८३।।
__ इससे यह जाना जाता है कि संयम और तप में स्थित निम्रन्थ महर्षियों के लिए यह प्रतिक्रमण-क्रिया तीर्थंकर महादेवाधिदेवों ने वर्णित की है, न कि सामान्य मुनि ने।
यह प्रतिक्रमण प्रमत्तसंयत मुनियों के हो होता है, आगे अप्रमत्तसंयत्त गुणस्थान से प्रारंभ कर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यंत मुनियों के निश्चय-प्रतिक्रमण तरतमभाव से रहता है। केवली भगवान् के तो इसका फल ही है । असंयत सम्यग्दृष्टि और देशसंयत श्रावकों में इन दोनों प्रकार के प्रतिक मणों की बात (सम्भावना) भी नहीं है, क्योंकि वहाँ पर मुनियों की छह आवश्यक क्रियाओं का अभाव है । श्रावकों की तो अन्य हो आवश्यक क्रियायें सुनी जाती हैं । सो ही देखिये--"देवपजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान-ये गृहस्थों को छह क्रियायें दिन-दिन प्रतिदिन करने के लिए कही गई हैं।"
तात्पर्य यह हुआ कि प्रतिक्रमणदण्डक को उच्चारण करने रूप जो क्रिया है, वह साधन है। उस व्यवहार-प्रतिक्रमण साधन के बल से ध्यानरूप निश्चय-प्रतिक्रमण को साध्य करना चाहिये । जब तक ऐसी शक्ति न प्राप्त हो सके, तब तक वचन के उच्चारणरूप द्रव्य-प्रतिक्रमण को अच्छी तरह करते रहना चाहिये ।।८३।। १. पद्मनन्दिपंचविंशति ६७ पद्य ।