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नियमसार प्राभृतम्
तेषु या काचिद् विराधना सा सर्वापि व्यक्तव्या तदेव प्रतिक्रमणं जायते इति कथयन्त्या चार्यदेवा:
आराहणाइ वइ, मांत्तृण विराहणं विसेसेण ।
सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥ ८४ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका—
विसेसेण विराहणं मोत्तूण - यः साधुः अष्टाविंशतिमूलगुणेषु नानाविधोत्तरगुणेषु अपि विशेषतया विराधनां आसादनां अतिचाराविदोषान् वा त्यक्त्वा, आराहणाइ वट्टइ - निश्चयरत्नत्रयसाधनभूतगृहीतव्रतानां स्वशुद्धात्मनो वा आराधनायां वर्तते, सो पडिकमणं उच्चइ - स एव साधुः प्रतिक्रमणमुच्यते । जम्हा पडिकमणमओ हवेयस्मात् स तस्मिन् काले प्रतिक्रमणमयो भवेत्, प्रतिक्रमणस्वरूपेणैव परिणमति, भावभाववतोर्भेदाभावात् इति । इतो विस्तरः
पंच महाव्रतसमितीन्द्रियनिरोधव्रतेषु षडावश्यक क्रियासु लोचाविशेषव्रतेषु च यः कश्चिदतिक्रमो व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारो वा भवेत्, स विराधनाशब्देन कथ्यते ।
व्रतों में जो कुछ भी विराधना है, उस सभी का त्याग करना चाहिये, तभी प्रतिक्रमण होता है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं
अन्वयार्थ - - (विसेसेण विराहृणं मोत्तूण आराहणाइ बट्ट६) जो विशेषरीति से विराधना को छोड़कर आराधना में वर्तन करते हैं, ( सो पडिकमणं उच्चइ ) वे प्रतिक्रमण कहलाते हैं, ( जम्हा पंडिकमणमओ हवे ) क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हो जाते हैं ।
टीका -- जो साधु अट्ठाईस मूल गुणों में और अनेक प्रकार के उत्तर गुणों में भी विशेषतया विरावना - आसादना या अतीचार आदि दोषों को छोड़कर निश्चयरत्नत्रय के लिये साधनभूत ग्रहण किये अपने व्रतों को अथवा अपनी शुद्ध आत्मा की आराधना में वर्तन करते हैं, वे ही साधु 'प्रतिक्रमण' कहलाते हैं, क्योंकि उस काल में वे प्रतिक्रमणस्वरूप से ही परिणमन कर रहे हैं । यहाँ पर भाव और भाववान् से भेद का अभाव दिखाया गया है । इसका विस्तार यह हैपाँच महाव्रत, पाँच समिति, कियाओं में और केशलोच आदि सात क्रम, अतीचार अथवा अनाचार होता है,
पाँच इंद्रियनिरोध व्रतों में छह आवश्यक शेष व्रतों में जो कुछ भी अतिक्रम, व्यक्तिवह 'विराधना' शब्द से कहा जाता है ।