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नियमसार-प्रामृतम् स्याद्वादचन्द्रिका
जो दु अणायारं मोत्तूण आयारे थिरभाव कुणदि-यः साधुः खलु सर्वामपि अनाचारप्रवृत्ति मुक्त्वा आचारग्रन्थकथितयत्याचारे प्रवर्तमानः सन् पश्चात् सहजशुद्धस्वास्मोत्यपरमानवस्वभावे परमात्मनि निजात्मनि वा स्थिरभावं करोति, घोरोपसर्गपरीषहादिप्रसंगेऽपि अविचलितमना भवति, सो पडिकमणं उच्चइ-स एथ प्रतिक्रमणमिति कथ्यते। जम्हा-यस्मात् कारणात् स तदानी पडिकमणमओ हवेप्रतिक्रमणस्वरूपो भवेत् ।
तथाहि-देवसिकप्रतिक्रमणटीकायां कथितमास्ते-व्रतसमित्यादीनामनाचरणं खण्डनं वाऽनाचारः । ब्रहत्प्रतिक्रमणे चोक्तं-अणाधारं परिवज्जामि। आचारः सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसापराययथाख्यातलक्षणो प्रताद्याचरणं था, तवभावोऽनाचारः तं परिवर्जयामि । आचारं उवसंपज्जामि-आचार तूपसंपद्ये । अथवा निश्चयप्रतिक्रमणापेक्षया केवलशानदशन खशक्तिस्वरूपानअशुद्धात्मतत्त्ववस्य वे प्रतिक्रमण कहलाते हैं। (जम्हा पडिकमणमओ हवे) क्योंकि वे प्रतिक्रमण हो जाते हैं।
___टीका--जो साधु निश्चित ही सभी अनाचार-प्रवृत्ति को छोड़कर आचार ग्रन्थों में कहे गये यत्तियों के आचार में प्रवृत्ति करते हुए पश्चात् सहज शुद्ध स्वात्मा से उत्पन्न परमानंद स्वभाब परमात्मा में अथवा तत्सदृश अपनी आत्मा में स्थिरभाव करते हैं, अर्थात् घोर उपसर्ग परोषह आदि के आने पर भी निश्चलमन रहते हैं, वे ही प्रतिक्रमण इस नाम से कहे जाते हैं। कारण कि वे उस समय प्रतिकमणस्वरूप हो जाते हैं।
उसे ही कहते हैं-देवसिकप्रतिक्रमण की टीका में कहा है--
"व्रत समिति आदि का आचरण न करना अथवा उनको खंडित कर देना 'अनाचार' है। पाक्षिकप्रतिकमण में कहा है--''अनाचार को छोड़ता हूँ-सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांप राय और यथाख्यात लक्षण आचार है, अथवा व्रतादि का आचरण करना आचार है। इनका अभाव होना अनाचार है, उसका मैं त्याग करता हूँ, और आचार को प्राप्त करता हूँ।"
अथवा निश्चयप्रतिक्रमण की अपेक्षा केवलज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य स्वरूप
१. प्रतिक्रमण अन्यत्रयी।