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नियमसार-प्राभृतम् स्यावादचन्द्रिका
सल्लभाब मोत्तूण-मायामिथ्यानिदानभेदेन त्रीणि शल्यानि शल्यमिय अन्तः. दारुणकष्टवायित्वात् । तच्छल्यपरिणामं मुक्त्वा जो दु साहु णिस्सल्ले परिणमदि-यः कश्चित् साधः निःशल्यभावेन परिणमति. पंचविधमिथ्यात्वात्, अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनभेदेन चतुविधमायापरिणामात, दष्टश्रतानुभतभोगाकाक्षाप्रभृत्यप्रशस्तोत्तमकुलसंहननादिमोक्षकारणभूतप्रशस्तद्विविधनिदानात् च निष्क्रान्तेन निःशल्यपरिणामेन तिष्ठति, सो पडिकमणं उच्चइ, जम्हा पडिकमणमओ हवे-स एव तपोधनः प्रतिक्रमणाख्यया उच्यते, प्रतिक्रमणभायपरिणतत्वात् तन्मयत्वाच्च, किंच प्रतिक्रमणतद्वतोभेवाभावात्।।
बृहत्प्रतिक्रमणे एवमेव प्रोक्तम्- "ससल्लं परिवज्जामि" शल्यमिव शल्यं मायामिथ्यानिवानम्, यथैव हि शल्यं बाणादि शरीरमनप्रविश्य पीडां करोति, तथा मायाविकमप्यात्मात्मानमनुप्रविश्य शारीरमानसादीनि नानादुःसहदुःखान्यनेकयोनि
टोका-माया, मिथ्या और निदान के भेद से शल्य तीन हैं, ये कांटे के समान अंतरंग में भयंकर कष्ट देने वाली हैं। इस शल्यपरिणाम को छोड़कर जो कोई साधु निःशल्य भाव से परिणमन करते हैं, वे प्रतिक्रमण कहलाते हैं। उन तीनों शल्यों को कहते हैं--पाँच प्रकार के मिथ्यात्व हैं। अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से माया के चार भेद हैं। देखे, सुने तथा अनुभव में आये ऐसे भोगों की आकांक्षा आदि अप्रशस्त, तथा उत्तम कुल, उत्तमसंहनन, आदि मोक्ष के कारणभूत प्रशस्त, ऐसे निदान के दो भेद हैं । इस मिथ्यात्व माया और निदान से रहित निःशल्य भाव से जो रहते हैं, वे ही तपोधन प्रतिक्रमण नाम से कहे जाते हैं, क्योंकि वे उस समय प्रतिक्रमण भाव से परिणत हैं और उसी रूप से तन्मय हो रहे हैं । यहाँ पर प्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण करने वाले मुनिइन दोनों में भेद नहीं है।
बृहत्प्रतिक्रमण में भी ऐसा ही कहा है
मैं शल्यसहित अवस्था को छोड़ता हूँ-जो शल्य कांटे के समान है, वह शल्य है और उसके माया, मिथ्या और निदान ये तीन भेद हैं। जैसे शल्य-कांटा या बाण आदि शरीर में प्रवेश करके पीड़ा को उत्पन्न करते हैं, वैसे ही ये माया आदि भी आत्मा में प्रवेश करके शारीरिक, मानसिक आदि अनेक योनिगत नाना