________________
नियमसार- प्राभृतम्
कथ्यते, निश्चयरत्नत्रयपरिणतेरभावात् परं तु तस्य साधकत्वात् व्यवहाररत्नत्रयस्वरूपोऽपि जनमार्ग एव । किंच व्यवहारमार्गाभावे निश्चयमार्गोऽपि न सिद्धयति, कुम्भकारचक्रदण्डाद्यभावे घटवत् । अतो निश्चयव्यवहारयोः परस्परमंत्री विज्ञाय व्यवहारे जिनशासने प्रवृत्ति विदधानाः सामायिककाले निर्विकल्पसमाधिकाले वा निश्चयजिनशासनरूपं स्वशुद्धात्मानं ध्यायन्तः सन्तो नयातीतावस्थां ये प्राप्नुवन्ति त एव परमार्थप्रतिमरूप भीत! इति ज्ञात्वा जिनशासने एतादृशी स्थिरा प्रोतिविधेया या मुक्तिगमनं यावत् तिष्ठेत् ॥ ८६ ॥
२५३
निःशल्यो मुनिरपि प्रतिक्रमणनामभ्यो भवतीति प्रतिपादयत्याचार्याः
मोत्तूण सल्लभावं, णिस्सल्ले जो दु साहु परिणमदि । सो पडिकमणं उच्चइ, पडिकमणमओ हवे जम्हा || ८७ ||
वह 'उन्मार्ग' कहलाता है, क्योंकि वहाँ निश्चयरत्नत्रयरूप परिणति का अभाव है, किंतु उसका साधक होने से व्यवहाररत्नत्रयस्वरूप भी जिनमार्ग ही है । दूसरी बात यह है कि व्यवहार मार्ग के अभाव में निश्चयमार्ग भी सिद्ध नहीं हो सकता है, जैसे कि कुंभार, चाक, दंड आदि के अभाव में घड़ा नहीं बन सकता है। इसलिए निश्चय और व्यवहार की परस्पर की मित्रता को जानकर व्यवहाररूप जिनशासन में प्रवृत्ति करते हुए सामायिक के समय अथवा निर्विकल्प समाधि के समय निश्चयजिनशासनरूप अपनी शुद्ध आत्मा को ध्याते हुए जो मुनि नयातीत अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं, वे ही महर्षि मनुष्य और देवों से वंद्य परमार्थ प्रतिक्रमण स्वरूप होते हैं ।
ऐसा जानकर जिनशासन में ऐसी स्थिर प्रीति करना चाहिये कि जो मुक्ति प्राप्त करने तक बनी रहे ॥ ८६ ॥
निःशल्य मुनि भी प्रतिक्रमण नामवाले होते हैं, आचार्यदेव ऐसा प्रतिपादन कर रहे हैं
अन्वयार्थ - - ( जो दु साहु सल्लभाव मोत्तूण ) जो साधु निश्चित ही शल्यभाव को छोड़कर ( णिस्सल्ले परिणमदि) निःशल्यभाव में परिणमन करते हैं, ( सो पडिकमणं उच्चइ) वे प्रतिक्रमण कहलाते हैं, ( जम्हा पडिकमणमओ हवे ) क्योंकि वे प्रतिक्रमणमय हैं ।