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नियमसार- प्राभृतम्
कमणमओ हवे - स एव निर्ग्रथस्तपोधनः प्रतिक्रमणम् उच्यते, तस्य प्रतिक्रमणमयत्वात् । प्रोक्ता ईदृश्येव भावना पाक्षिकप्रतिक्रमण विधी
"अगुत्त परिवज्जामि - सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः । सा त्रिविधा मनोवाक्कायभेदात् । रत्नत्रयस्य हि गोपन रक्षणं गुप्तिः । रत्नत्रयं वा गोपयति रक्षयति पालयतीति गुप्तिः, प्रशस्ता मनोatest: । तदभावोऽगुमिः तां परिवर्जयामि । गुत्ति उवसंपज्जामि गुप्ति पुनरुपसंपद्ये" "
अत्र निश्चयप्रधाना गुप्तयो गृह्यन्ते, या निर्विकल्प समाधिलक्षणनिश्चय रत्नत्रयस्यैकाग्र्यपरिणतौ एव सिद्धयति । तदानीमाभिस्त्रिगुप्तिभिः सहितः साधुरन्तर्मुहूर्तमात्रेणैव घातिकर्माणि हन्ति । अथवा कदाचित् षष्ठगुणस्थाने आगत्य विहरति तर्हि अवधिज्ञानी मन:पर्ययज्ञानी या भूत्वा तिष्ठति, राज्या चेलिन्या अंगुलीभिः संकेतितोsवधिज्ञानधारी महामुनिरिव । अस्य त्रिगुप्तियुक्तस्य मुनेर्माहात्म्यं प्रोक्तं च प्रवचन सारे
जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडी हिं । सं णाणी तिहि गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥ *
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पाक्षिक प्रतिक्रमण विधि में ऐसी ही भावना कही गई है-
"मैं अगुप्ति को छोड़ता हूँ - समीचीनतया योग का निग्रह करना गुप्ति है - मन वचन काय की अपेक्षा वह तोन प्रकार की है। रत्नत्रय का गोपन-रक्षण गुप्ति है, अथवा जो रत्नत्रय को गोपित करते हैं- रक्षित करते हैं - पालन करते हैं, उन्हें गुप्ति कहते हैं - ये प्रशस्त मन वचन कायरूप हैं । इनका अभाव होना अगुप्ति है । उस अगुप्ति को छोड़ता हूँ और गुप्ति को स्वीकार करता हूँ ।"
यहाँ पर निश्चयनय प्रधानवाली गुप्तियाँ ग्रहण की गई हैं, जो कि निर्विकल्प समाधिलक्षण निश्चयरत्नत्रय की एकाग्र-परिणति में ही सिद्ध होती हैं । उस समय इन तीन गुप्तियों से सहित साधु अंतर्मुहूर्त मात्र से ही घातिकर्म का नाश कर देते हैं । अथवा कदाचित् वे मुनि छठे गुणस्थान में आकर विहार करते हैं, तो अवधिज्ञानी अथवा मन:पर्ययज्ञानी होकर रहते हैं । जैसे कि रानी चेलनी के द्वारा संकेत किये अवधिज्ञानी महामुनि का उदाहरण प्रसिद्ध है ।
इन तीन गुप्ति से युक्त मुनि का माहात्म्य प्रवचनसार में कहा गया है--- "अज्ञानी जितने कर्म को लाखों, करोड़ों वर्षों में खपाते हैं, तीन गुप्ति से युक्त ज्ञानी मुनि उतने कर्म को उच्छ्वासमात्र में ही क्षय कर देते हैं ।" २. प्रवचनसार गाथा २३८
१. प्रतिक्रमण सम्यत्रयी
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