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नियमसार-प्राभृतम्
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स्याद्वादचन्द्रिका —
अट्टरुद्द झाणं मोत्तून - आर्तध्यानं चतुविधं रौद्रव्यानं चतुविधं च एतद्द्वयमपि अप्रशस्तत्वात् संसारकारणत्वाच्च यमिति विज्ञाय मुक्त्वा, जो धम्मसुक्कं वाझादि-यो दिगंबरो मुनिः धयेध्यानं चतुविधं दशविधं वा शुक्लध्यानं चापि
सुविधं एतद्द्वयमपि ध्यानं ध्यायति प्रशस्तत्वात् स्वर्मोक्षहेतुत्वात् च 'परे मोक्ष हेतू" इति वचनात् । कदाचित् शुक्लध्यानं ध्यातुमक्षमः सन् धर्म्यध्यानमवलम्ब्य तरतमभावेन, पिंडस्थ पदस्थरूपस्वरूपातीतभेदभिन्ने वा कस्मिश्चिदपि ध्याने तिष्ठति । सो पडिकमणं उच्चइस एव ध्याता मुनिः प्रतिक्रमणसंज्ञयाऽभिधीयते । क्व ? जिणवरणिद्दित्तं सु-घातिकर्मारातीन् जयतीति जिनास्तेषां वराः प्रधानाः जिनवरा: परमतोर्थंकर देवास्तैनिविष्टेषु सूत्रेषु परमागमश्रुतेषु इति ।
यतिप्रतिक्रमणेऽपि प्रोक्तं गतस्यामिभिः-
रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म्य अथवा शुक्ल ध्यान को ध्याते हैं, ( सो जिणवरणिद्दिट्ठत्तेसु) वे हो जिनेंद्रदेव द्वारा कथित सूत्रों में ( पडिकमणं उच्चइ) प्रतिक्रमण कहे जाते हैं ।
टीका- आर्तध्यान चार प्रकार है और रौद्र ध्यान चार प्रकार का है। ये दोनों भी अप्रशस्त हैं और संसार के कारण हैं । इन्हें ऐसा हेय जानकर और उसे छोड़कर जो दिगंबर मुनि चार प्रकार के अथवा दस प्रकार के धर्म्यं ध्यान को और चार प्रकार के शुक्ल ध्यान को इन दोनों को, ध्याते हैं, क्योंकि ये दोनों ही प्रशस्त और स्वर्ग - मोक्ष के हेतु हैं । "अनंतर के दो ध्यान मोक्ष के हेतु हैं" ऐसा तत्त्वार्थ सूत्र में कहा भी गया है ।
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पुनः कोई मुनि कदाचित् शुक्ल ध्यान को ध्याने में असमर्थ होते हुए तरलमभाव से धर्म्यं ध्यान का अवलंबन लेकर अथवा पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदों वाले किसी भी ध्यान में ठहरते हैं, वे ही ध्याता मुनि 'प्रतिक्रमण' नाम से कहे जाते हैं । जिन्होंने घाति कर्मरूपी शत्रुओं को जीत लिया है वे "जिन" हैं जो उनमें वर-प्रधान हैं, वे परम तीर्थंकर देव " जिनवर " हैं । उनके द्वारा कथित परमागम लक्षण सूत्रों में उक्त प्रकार से कहा गया है ।
१. वत्वार्थ सूत्र अ० ९ ।