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नियमसार-प्राभृतम्
तन्नापूर्वमिहास्ति किंचिदपि मे हित्वा विकल्पावली, सम्यग्दर्शनबोधवृत्तपदवीं तां देव! पूर्णा कुरु ॥
चित्रमेतत् यत् सदैव स्वपाश्वें स्वस्मिन्नेव तिष्ठति, तमेव निजवेहवेवालयस्थितदेवं भगवन्तमात्मानमजानन्तः पंचपरावर्ते संसाराब्धौ निमज्जति, तथा च सर्वथाऽचेतनं स्वस्माद् भिन्नं शरीरधनजनादिकं स्वं मन्यमानोऽनवरतं क्लिश्नन्ति । उक्तं च परमानन्दस्तोत्रं
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परमानन्द:: युक्तं निर्विकारं निरामयं । ध्यानहीना न पश्यंति निजदेहे व्यवस्थितम् ॥
यावन्मिथ्यात्वं वर्तते तावदयं जीवो स्वमेव न श्रद्धत्ते । यदा सम्यक्त्वं प्रादुर्भवति ततः प्रभृति स्वमात्मानं सिद्धसदृशं श्रद्दधानो देशव्रतो भूत्वा क्रमशः महाव्रतमादाय शुद्धबुद्धपरमानंदे कस्वभावनिजात्मतत्वस्य सम्यक् श्रद्धानं तस्यैव ज्ञानं
पद और निगोद के मध्य जो भी योनियाँ हैं, उन सबको अनंतों बार प्राप्त कर लिया है । मेरे लिये उनमें से कोई भो पर्याय अपूर्व नहीं है । इसलिये देव ! अब मैं सर्व विकल्पों को छोड़कर आपके श्रीचरणों में यही प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पदवों को पूर्ण कीजिये ।"
आश्चर्य की बात यह है कि जो सदा ही अपने पास में अपने में हो विद्य मान है, उसी अपने देहरूपी देवालय में स्थित, देवस्वरूप भगवान् आत्मा को नहीं जनते हुए ये जीव पाँच परिवर्तनरूप संसार-समुद्र में डूब रहे हैं और सर्वथा अचेतन, अपने से भिन्न, शरीर, घन, जन आदि को अपना मानते हुए सतत ही क्लेश उठा रहे हैं ।
परमानंदस्तोत्र में कहा भी है-
परमानंद से संयुक्त निर्विकार और नीरोग — पूर्णस्वस्थ अपने शरीर में विद्यमान भगवान् स्वरूप आत्मा को ध्यानहीन मनुष्य नहीं देख सकते हैं । अभिप्राय यह है कि जब तक मिथ्यात्व रहता है, तब तक यह जोव अपनी आत्मा का ही श्रद्धान नहीं करता है और जब सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है, तभी से यह अपनी आत्मा को सिद्धसमान श्रद्धान करता हुआ देशव्रती होकर क्रम से महाव्रत को ग्रहण कर शुद्ध बुद्ध परमानंद एकस्वभावी आत्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान,
१. पद्मनंदिपंचविशतिका-९ अधिकार ३१वां ।