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नियमसार- प्राभृतम्
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"उत्तमार्थो निःशेषदोषालोचनपूर्व कांगविसर्गसमर्थो यावज्जीवं चतुविधाहारपरित्यागः " " उत्तमार्थप्रतिक्रमणं कृत्वा यो मुनिः पंडितमरणेन म्रियते स तृतीयभवे, अधिकतमे सप्तमेऽष्टये वा भवे जियदेव सिद्धयति । निश्चयेन तु यः कश्विद् भव्य पुण्डरीकः स्वयं स्वेन स्वस्मै स्वस्मात् स्वस्य स्वस्मिन्नेव स्वमात्मानं ध्यायति, स सत्वरं सिद्धिकान्तापतिर्भविष्यतीति ज्ञात्वा निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं ध्येयं कृत्वा व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणस्य सिद्धयर्थं सततं त्वया जागरुकेण भवितव्यम् ॥ ९२ ॥ अधुना निश्चयनयेन सर्वातिचारप्रतिक्रमणस्वरूपं प्रतिपादयन्ति सूरिचर्या:
झाणणिलीणो साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं ।
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तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ॥ ९३ ॥ स्याद्वादचन्द्रिका
झाणणिलीणो साहू - शुद्धात्मत स्वैकाग्र्यपरिणतिरूपपरमधर्म्यध्याने शुक्लध्याने वा निलीनस्तन्मयः साधुः सब्बदोसाणं परिचागं कुण६ - मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वा जातानां सर्वदोषाणां परित्यागं करोति ।
संपूर्ण दोषों की आलोचनापूर्वक शरीर के त्याग में समर्थ जो यावज्जीवन चार प्रकार के आहार का परित्याग है, वह 'उत्तमार्थं प्रतिक्रमण' है ।
जो 'उत्तमार्थं प्रतिक्रमण' करके पंडितमरण से शरीर छोड़ते हैं, वे तीसरे भत्र में अधिकतम सात अथवा आठ भव में नियम से सिद्ध पद प्राप्त कर लेते हैं । और निश्चयनय से जो कोई भव्य-श्रेष्ठ स्वयं अपने द्वारा अपने लिए, अपने से, अपने आपको, अपने में ध्याते हैं, वे शीघ्र ही सिद्धिकांता के पति हो जाते हैं। ऐसा जानकर निश्चय प्रतिक्रमण को ध्येय बनाकर व्यवहार उत्तमार्थं प्रतिक्रमण की सिद्धि के लिए आपको सतत जागरूक रहना चाहिए ॥ ९२ ॥
अब निश्चयनयसे आचार्यत्रर्थ सर्वातिचार प्रतिक्रमण का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं
अन्वयार्थ — (झाणणिलीणा साहू सव्वदोसाणं परिचागं कुणइ ) ध्यान में निरत हुए साधु सर्व दोषों का परित्याग करते हैं, (तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ) इसलिए ध्यान ही सर्वातिचार का प्रतिक्रमण है ।
टीका - शुद्धात्म-तत्व में एकाग्र परिणतिरूप परम धर्मध्यान अथवा शुक्लध्यान में लीन हुए - तन्मय हुए साधु मूल गुणों में अथवा उत्तर गुणों में उत्पन्न हुए १. अनगारथ र्मामृत, अध्याय ८ श्लोक ५७ की टीका से ।